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________________ कारिकाः । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । इस ज्ञानशक्तिकी अपेक्षा भगवानको विभु कहा है । अथवा समुद्घांतकी अपेक्षासे भी उनको विभु कहा जा सकता है। इस ज्ञानसाम्राज्य के प्रतिबंधक कर्मोंका नाश भगवान् ने किसी दूसरे की सहायता से नहीं, किन्तु अपनी ही शक्ति से किया था । कृतकृत्य भगवान् की वाणी तीर्थंकर - प्रकृतिके निमित्तसे लोकहित के लिये जो प्रवृत्त हुई वह केवलज्ञानपूर्वक थी, अतएव उसको सर्वथा निर्वाध ही समझना चाहिये । भगवान् ने जिस मोक्षमार्गका उपदेश दिया उसका स्वरूप कैसा है और उसके भेद कितने हैं, तथा उसका फल क्या है सो बताते हैं द्विविधमनेकद्वादशविधं महाविषयममितगमयुक्तम् । संसारार्णवपारगमनाय दुःखक्षयायालम् ॥ १९ ॥ अर्थ - - भगवान् ने जिस मार्गका उपदेश दिया वह जीवादिक ६ द्रव्य या सात तत्त्व और नव पदार्थ तथा इनके उत्तर भेदरूप महान् विषयों से परिपूर्ण है । और अनंतज्ञानरूप तथा युक्तिसिद्ध है, अथवा अनंत प्रमेयोंसे युक्त है । इसके मूलमें दो भेद हैं-- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य | अंगबाह्यके अनेक भेद और अंगप्रविष्टके बारह भेद हैं । यह भगवान्का उपदिष्ट तीर्थ संसार-समुद्रसे पार ले जानेके लिये और दुःखोंका क्षय करनेके लिये समर्थ है । भावार्थ -- भगवान् की उपदिष्ट वाणीको ही श्रुत कहते हैं । उसमें जिन विषयों का वर्णन किया गया है, वे महान् हैं अनंत है और युक्तिसिद्ध हैं । अतएव उसके अनुसार जो क्रिया करते हैं, वे संसार - समुद्रसे पार हो कर सांसारिक दुःखों - तापत्रयका क्षयकर आत्मसमुत्थ स्वाभाविक अविनश्वर अव्याबाध सुखको प्राप्त किया करते हैं । श्रुतके भेदोंका वर्णन और स्वरूप आगे चलकर पहले अध्याय के १९ वें सूत्रमें लिखेंगे वहाँ देखना । ग्रंथार्थवचनपटुभिः प्रयत्नवद्भिरपि वादिभिर्निपुणैः । अनभिभवनीयमन्यैर्भास्कर इव सर्वतेजोभिः || २० ॥ अर्थ- - जिस प्रकार संसारके तेजोमय पदार्थ सबके सब मिलकर भी सूर्य के तेजको आच्छादित नहीं कर सकते, उसी प्रकार अनेकान्त सिद्धान्तके विरुद्ध एकान्तरूपसे तत्त्वस्वरूप १--- शरीरसे सम्बन्ध न छोड़कर शरीर के बाहर भी आत्मप्रदेशोंके निकलनेको समुद्धात कहते हैं । उसके सात भेद हैं-वेदना, कषाय, विक्रिया, मरण, आहार, तैजस और केवल | केवलसमुद्धात केवली भगवान् के ही होता है । जब अघाति कर्मों में आयुकर्म और शेष वेदनीय आदि कमोंकी स्थितिमें न्यूनाधिकता होती है, तब भगवान् शेष कर्मो की स्थितिको आयुकर्मकी स्थिति के समान बनाने के लिये समुद्धात करते हैं । इसका काल आठ समयका है, और वह तेरहवें गुणस्थानके अंतमें होता है । इसके चार भेद हैं- दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण । लोकपूर्ण अवस्था में जीवके प्रदेश फैलकर लोकके ३४३ राजप्रमाण समस्त प्रदेशों में व्याप्त हो जाते हैं । इस अपेक्षा से भी भगवान्को विभु कहा जा सकता है । २ -- दशवैकालिक उत्तराध्ययन आदि । ३ - आचारात सूत्रकृतांग, स्थानांग, आदि द्वादशांग | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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