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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ सम्बंध भूत स्थान उपवेशन आवर्त शिरोनति आदि क्रिया करते हुए सावद्य योगके निरोध करनेको सामायिक कहते हैं । व्रत मूलमें अहिंसादिके भेदसे पाँच प्रकार के हैं, तथा उसके उत्तरभेद अनेक हैं । भगवान् ने इन व्रतों का भी सम्यक् प्रकारसे अपनी आत्मामें आरोपण-निष्ठापन किया । सम्यक्त्वज्ञानचारित्रसंवरतपःसमाधिबलयुक्तः । मोहादीनि निहत्याशुभानि चत्वारि कर्माणि ॥ १७ ॥ अर्थ - सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र संवर तप और समाधिके बलसे संयुक्त भगवान् ने मोहनीय आदि चारों अशुभ कर्मोंका घात कर दिया | भावार्थ - सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इस रत्नत्रयका स्वरूप आगे यथास्थान लिखा है । कर्मो न आनेको अथवा जिन क्रियाओंके करनेसे कर्मोंका आना रुकता है, उनको संवर कहते हैं । गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र एवं तपस्या ये संवररूप क्रियाएं हैं । सावद्य कर्मका निरोध करने अथवा निर्जरासिद्धि के लिये मन वचन कायके रोकने में कष्ट सहन करनेको तप कहते हैं । यह दो प्रकारका है - अन्तरङ्ग और बाह्य | और उनमें भी अन्तरङ्गके प्रायश्चित्तादि तथा बाह्य के अनशन आदि छह छह भेद हैं । स्थिर ध्यानको समाधि कहते हैं, ऐसा ऊपर कहा जा चुका है । रत्नत्रय और इन तीन कारणों के बलते भगवान्ने चार पाप कर्मोंको सर्वथा नष्ट कर दिया । केवलमधिगम्य विभुः स्वयमेव ज्ञानदर्शनमनन्तम् । लोकहिताय कृतार्थोऽपि देशयामास तीर्थमिदम् ॥ १८ ॥ अर्थ - चार घातिया कर्मोंका स्वयं ही नाश करके विभु भगवानने जिसका अंत नहीं पाया जा सकता, ऐसे केवलज्ञान और केवलदर्शन गुणैको प्राप्त किया । इस प्रकार कृतकृत्य होकर भी उन्होंने केवल लोक हित के लिये इस तीर्थ - मोक्षमार्गका उपदेश दिया । भावार्थ - चार अशुभ कर्मोंको नष्ट कर अनंतचतुष्टयके प्राप्त होनेसे कृतकृत्य अवस्था कही जाती है | अनंत केवलज्ञान गुणके उद्भूत होजाने पर सम्पूर्ण त्रैकालिक / सूक्ष्म स्थूल चराचर जगत प्रत्यक्ष प्रतिभासित होता है । उनका ज्ञान समस्त द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायोंमें व्याप्त होकर रहता है; क्योंकि सभी पदार्थ केवलज्ञानमें प्रतिबिम्बित होते हैं । अतएव १ - - मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय । २ -- कर्म दो प्रकारके माने हैं-घाती और अघाती, प्रत्येक के चार चार भेद हैं । अघातियों के भेदोंमें शुभ अशुभ दोनों तरहके कर्म होते हैं, किंतु घातियोंके सब भेद अशुभ ही हैं । इन्हीं चार घातियों का भगवान् ने सबसे पहले नाश किया । ३- - चार घातिया कर्मों के नाशसे अनन्तज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुख और अनंतवीर्य ये चार गुण प्रकट होते हैं । जैसा कि अध्याय १० सूत्र १ के अर्थसे सिद्ध है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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