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________________ सूत्र २४ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २७३ तम छाया आतप और उद्योत पुद्गल द्रव्यके परिणमन विशेषके द्वारा ही निष्पन्न हुआ करते हैं । अतएव ये भी उसीके धर्म हैं । न भिन्न द्रव्य हैं, और न भिन्न द्रव्यके परिणाम हैं । शब्दादिकके समान ये भी पुद्गल ही हैं, क्योंकि उक्त स्पर्शादिक सभी गुण पुद्गलोंमें ही रहा करते हैं, और इसीलिये पुद्गलोंको तद्वान् - रूप रस गंध स्पर्शवान कहा गया है । भावार्थ - रूपादिक पुद्गल के लक्षण हैं । जो जो पुद्गल होते हैं, वे वे रूपादिवान् अवश्य होते हैं, और जो जो रूपादिवान् होते हैं, वे वे पुद्गल हुआ करते हैं । अतएव शब्दादिक या तम आदिकको भी पुद्गलका ही परिणाम बताया है । क्योंकि इन विषयों में अनेक मतवालोंका मतभेद है । कोई शब्दको आकाशका गुण, कोई विज्ञानका परिणाम, और कोई ब्रह्मका विवर्त मानते हैं । किंतु यह सब कल्पना मिथ्या है । न्याय - शास्त्रोंमें इस विषयपर अच्छी तरह विचार किया है । शब्द मूर्त है, यह बात युक्ति अनुभव और आगमके द्वारा सिद्ध है । यदि वह आकाशका गुण होता, तो नित्य व्यापक होता, और मूर्त इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता था, न दीवाल आदि मूर्त पदार्थोंके द्वारा रुक सकता था । इससे और आगमके कथनसे सिद्ध है, कि शब्द अमूर्त आकाशका गुण नहीं, किंतु मूर्त पुद्गलका ही परिणाम है । 1 इसी प्रकार तमके विषयमें भी मतभेद है । कोई कोई तमको द्रव्यरूप न मानकर अभावरूप मानते हैं । सो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि जिस प्रकार तमको प्रकाशके अभावरूप कहा जा सकता है, उसी प्रकार प्रकाशको तमके अभावरूप कहा जा सकता है। दूसरी बात यह भी है, कि तुच्छाभाव कोई प्रमाणसिद्ध विषय नहीं है । अतएव प्रकाशके अभावरूप भी यदि माना जाय, तो भी किसी न किसी वस्तुस्वरूप ही उसको कहा जा सकता है । उसके नील वर्णको देखनेसे प्रत्यक्ष द्वारा ही उसकी पुद्गल परिणामता सिद्ध होती है । अतएव तम भी पुद्गलका ही परिणाम है, यह बात सिद्ध है । इसी प्रकार अन्य परिणमनोंके दिषयमें भी समझना चाहिये । भाष्यम् – अत्राह - किमर्थं स्पर्शादीनां शब्दादीनां च पृथकू सूत्रकरणमिति ? अत्रो - च्यते - स्पर्शादयः परमाणुषु स्कन्धेषु च परिणामजा एव भवन्ति । शब्दादयस्तु स्कन्धेष्वेव भवन्त्यनेकनिमित्ताश्चेत्यतः पृथक् करणम् ॥ त एते पुद्गलाःसमासतो द्विविधा भवन्ति ॥ तद्यथा अर्थ - प्रश्न - स्पर्शादि गुणोंसे युक्त पुद्गलोको, और शब्दादि रूपमें परिणत होनेवाले पुद्गलोंको पृथक् पृथक् सूत्रके द्वारा बतानेका क्या कारण है ? अर्थात् दोनों विषयोंका उल्लेख १-- आजकल लोकमें भी देखा जाता है, कि शब्दकी गति इच्छानुसार चाहे जिधरको की जा सकती है, और आवश्यकता अथवा निमित्त के अनुसार उसको रोक कर भी रक्खा जा सकता है। जैसे कि ग्रामोफोनकी चूड़ी में चाहे जैसा शब्द रोककर रख सकते हैं, और उसको चाहे जब व्यक्त कर सकते हैं । टेलीग्राम या वायरलेस-वे तारके तारके द्वारा इच्छित दिशा और स्थानकी तरफ उसकी गति भी हो सकती है । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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