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________________ सूत्र २० ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । आसन आदि किया जाता है, वह प्राण-धारणमें उपकारी होता है, और इसीलिये वह जीवनका निमित्त बनता है। आयकर्मकी लम्बी स्थितिका विष शस्त्र अग्नि-प्रहार मंत्र-प्रयोग आदिके द्वारा कम हो जानेको अपवर्तन कहते हैं । जिस आयुका बन्धकी विशेषताके कारण अपवर्तन नहीं हो सकता, वह भी पुद्गल द्रव्यका ही उपकार है । एवं च जिसका अपवर्तन हो सकता है, उसमें भी पुद्गलका ही उपकार है। जीवनमें जो सहायक हैं, उनसे विरुद्ध स्वभाव रखनेवाले पुद्गल मरणके उपकारक समझने चाहिये । पहले सूत्रमें शरीरादिके द्वारा पुद्गल द्रव्यका उपकार बताया है, और इस सूत्रमें सुखादिके द्वारा बताया है । इस प्रकार विभाग करनेका कारण यह है, कि सुखादिकमें कर्मके उदयकी अपेक्षा है, और शरीरादिकमें पुद्गलोंके ग्रहणमात्रकी अपेक्षा है। जैसे कि सुखमें सातावेदनीयकर्मके उदयकी और दुःखमें असातावेदनीयकर्मके उदयकी अपेक्षा है। जीवन में आयुकर्मके उदयकी और मरणमें उसके अभावकी अपेक्षा है । भाष्यम्-अत्राह-उपपन्नं तावदेतत् सोपक्रमाणामपवर्तनीयायुषाम् । अथानपवायुषां कथमिति ? अत्रोच्यते--तेषामपि जीवितमरणोपग्रहः पुद्गलानामुपकारः । कथमिति चेत् तदुच्यते--कर्मणः स्थितिक्षयाभ्याम् । कर्म हि पौद्गलमिति । आहारश्च त्रिविधः सर्वेषामेवोपकुरुते । के कारणम् ? शरीरस्थित्युपचयबलवृद्धिप्रीत्यर्थ ह्याहार इति॥ __ अर्थ--प्रश्न-जिनके आयुकर्मका अनशन अथवा रोग आदिकी बाधासे अपक्षय होता हो, या अन्य किन्हीं कारणोंसे अपवर्तन होता हो, उनके लिये पुद्गल द्रव्यका उपकार माना जाय, यह तो ठीक है, परन्तु जिनकी आयु अनपर्य है, ऐसे देव नारक चरमशरीरी उत्तम पुरुष और भोग भमियोंके जीवन और मरणमें पुद्गलका उपकार किस तरह माना जा सकता है ? उत्तर-जो अनपवर्त्य आयके धारक हैं, उनके जीवन और मरणमें भी पुद्गल द्रव्यका उपकार है। प्रश्न-जब उनकी आयु न बढ़ सकती है, और न घट सकती है, फिर पुद्गल द्रव्य उसमें क्या उपकार करते हैं ? उत्तर-कर्मकी स्थिति और क्षयके द्वारा उनके भी पुद्गल उपकार किया करते हैं । क्योंकि ज्ञानावरणादिक सभी कर्म पौगलिक हैं । आयुकर्म भी पौगलिक ही है। देवादिकोंका जीवन मरण कर्मके उदय और क्षयकी अपेक्षासे ही हुआ करता है। अतएव उनके १-टीकाकारने विभागका कारण यही लिखा है। यथा-" सुखादीनामुदयापेक्षत्वात् प्राच्यानां ग्रहणमात्र विषयत्वात् ।” परन्तु यह हेतु हमारी समझमें ठीक नहीं आया, क्योंकि कर्मका उदय दोनोंमें ही निमित्त है । सुखादिक में यदि वेदनीयादिक उदयकी अपेक्षा है, तो शरीर योग्य पुद्गलोंके ग्रहणमें भी शरीरनामकर्म और बंधन संघातादिके उदयकी अपेक्षा है । श्लोकवार्तिककार श्रीविद्यानन्दि आचार्य ने इस विभागका कारण ऐसा बताया है, कि शरीरादिकमें पुद्रलविपाकी कर्मोके उदयकी अपक्षा है, और सुखादिकम जीव विपाकी कर्मोकी अपेक्षा है, तथा आयुकर्मको भी उन्होंने कथंचित जीवविपाकी माना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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