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सूत्र ३९-४०-४१-४२।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
यहाँसे आगे जघन्य स्थितिका क्या हिसाब है, सो बताते हैं-सूत्र - परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा ॥ ४२ ॥
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भाष्यम् — माहेन्द्रात्परतः पूर्वा परा (पूर्वा) ऽनन्तरा जघन्या स्थितिर्भवति । तद्यथामाहेन्द्रे परा स्थितिर्विशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या स्थितिर्भवति, ब्रह्मलोके दश सागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तके जघन्या । एवमा सर्वार्थसिद्धादिति । (विजयादिषु चतुर्षु परा स्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि साऽजघन्योत्कृष्टा सर्वार्थसिद्ध इति )
अर्थ—माहेन्द्र कल्पसे आगे के कल्पोंमें जघन्य स्थितिका प्रमाण इस प्रकार है, कि पहले कल्पकी जो उत्कृष्ट स्थिति होती है, वही आगे के कल्पकी जघन्य स्थितिका प्रमाण हो जाता है | जैसे कि - माहेन्द्र कल्पमें उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण सात सागरसे कुछ अधिक है, वही आगे के कल्प - ब्रह्मलोक में जघन्य स्थितिका प्रमाण है । इसी प्रकार ब्रह्मलोक में उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण जो दश सागरोपम है, वही आगेके कल्प - लान्तक में जघन्य स्थितिका प्रमाण हो जाता है । इसी तरह आगे के सम्पूर्ण कल्पों में सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त यही क्रम समझना चाहिये ( विजयादिक चार विमानोंमें उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण तेतीस सागर है, वही आगे के विमान सर्वार्थसिद्धमें जघन्य स्थितिका प्रमाण है । किन्तु सर्वार्थसिद्ध विमानकी स्थिति में जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं है । वहाँ तेतीस सागरकी ही स्थिति है । )
उपपात जन्मवालोंकी जघन्य स्थितिके विषय में प्रश्न करते हुए पूछा था, कि इनकी स्थिति एक उत्कृष्ट भेदरूप ही है या क्या ? उपपात जन्म नारक - जीवोंका भी है, और उनकी भी उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन पहले कर चुके हैं, किन्तु अभीतक जघन्य स्थितिका वर्णन नहीं किया है, अतएव उनके विषयमें भी यही प्रश्न है । परन्तु यहाँ पर देवोंकी ही जघन्य स्थितिका अभीतक उल्लेख किया है । इसलिये यहाँपर नारकजीवों की भी जघन्य स्थिति बताना आवश्यक है । इसके सिवाय अन्यत्र उसके वर्णन करनेमें ग्रन्थ- गौरव और यहाँ पर वर्णन करनेमें ग्रन्थका लाघव होता है । क्योंकि उपर्युक्त सूत्रमें बताया हुआ ही क्रम नारक - जीवोंकी जघन्य स्थितिके विषय में है । अतएव अप्रकृत भी नारक - जीवोंकी जघन्य स्थितिको बतानेके लिये सूत्र करते हैं
१ --- इस सूत्र बताये हुए नियमके अनुसार विजयादिक में जघन्य ३१ सागर और उत्कृष्ट ३२ सागर स्थिति सिद्ध होती है । परन्तु यहाँ कांसस्थ पाठ में ३३ सागर किस तरह बताई, सो समझमें नहीं आता। दूसरी बात यह है, कि यह पाठ भाष्यकारका मालूम भी नहीं होता । भाष्यकारको सर्वार्थसिद्ध में जघन्य ३२ सागरकी स्थिति इष्ट है, ऐसा मालूम होता है । जैसा कि टीकाकारने भी लिखा है कि- " भाष्यकारेण तु सर्वार्थसिद्धेऽपि जघन्या द्वात्रिंशत् सागरोपमाण्यधीता, तन्न विद्मः केनाभिप्रायेण । आगमस्तावदयं - " सव्वसिद्धदेवाणं भंते! केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! अजहण्णुकोसेणं तित्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नता । ( प्रज्ञा० प० ४ सूत्र १०२ ) ! सूत्र ३८ के भाष्यमें दिये हुए अजघन्योत्कृष्टा पाठसे टीकाकारका समाधान हो सकता है, परन्तु वह पाठ कहीं मिलता है, और कहीं नहीं । संभव है कि उन्हें यह पाठ न मिला हो, अथवा इसको उन्होंने प्रक्षिप्त-क्षेपक समझा हो ।
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