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रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम्
[ चतुर्थोऽध्यायः
भावार्थ-सर्वार्थसिद्धके देवोंकी स्थितिमें यह विशेषता समझनी चाहिये, कि वहाँपर जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद नहीं है। एक ही भेद है, जिसका कि प्रमाण तेतीस सागर है । अर्थात् सर्वार्थसिद्धमें जितने भी देव होते हैं, सबकी आयुकी स्थिति तेतीस सागर ही हुआ करती है।
भाष्यम्-अत्राह-मनुष्यतिर्यग्योनिजानां परापरे स्थिती व्याख्याते । अथौपपातिकानां किमेकैव स्थितिः परापरे न विद्यते इति । अत्रोच्यतेः
अर्थ-प्रश्न--पहले मनुष्य और तिर्यञ्चोंकी जो स्थिति बताई है, वह दो प्रकारकी बताई है-उत्कृष्ट और जघन्य । यहाँपर औपपातिक जन्मवालोंकी जो स्थिति बताई है, वह एक ही प्रकारकी है-एक उत्कृष्ट भेदरूप ही है। उसमें उत्कृष्ट और जघन्य ऐसे दो भेद नहीं है । सो क्या वह एक ही प्रकारकी है-उसमें जघन्योत्कृष्ट भेद हैं ही नहीं ? या और ही कुछ बात है ? इसके उत्तरमें आगेका सूत्र कहते हैं:
सूत्र--अपरा पल्योपममधिकं च ॥ ३९ ॥ भाष्यम्-सौधर्मादिष्वेव यथाक्रममपरा स्थितिः पल्योपममधिकं च । अपरा जघन्या निकृष्टेत्यर्थः । परा प्रकृष्टा उत्कृष्टत्यनान्तरम् । तत्र सौधडपरा स्थितिः पल्योपममैशाने पल्योपममधिकं च।
अर्थ-अब जघन्य स्थितिका वर्णन करते हैं। वह भी क्रमसे सौधर्मादिकके विषयों ही समझनी चाहिये । सौधर्म और ऐशानमें जघन्य स्थिति क्रमसे एक पल्य और एक पल्यसे कुछ अधिक है । अर्थात् सौधर्म कल्पमें जघन्य स्थितिका प्रमाण एक पल्य है, और ऐशान कल्पमें एक पल्यसे कुछ अधिक है। अपर जघन्य और निकृष्ट शब्दोंका एक ही अर्थ है। तथा पर प्रकृष्ट और उत्कृष्ट शब्दोंका एक अर्थ हैं।
सूत्र--सागरोपमे ॥ ४०॥ भाष्यम्-सानत्कुमारेऽपरा स्थिति सागरोपमे ॥ अर्थ–सानत्कुमार कल्पमें रहने वाले देवोंकी जघन्य स्थितिका प्रमाण दो सागरोपम है।
सूत्र-अधिक च ॥ ४१ ॥ भाष्यम्-माहेन्द्रे जघन्या स्थितिरधिके द्वे सागरोपमे ॥
अर्थ-माहेन्द्रकल्पवर्ती देवोंकी जघन्यस्थितिका प्रमाण दो सागरोपमसे कुछ अधिक है।
१-स्थिति शब्द स्त्रीलिङ्ग है। अतएव उसके विशेषणरूपमें आनेपर ये शब्द भी स्त्रीलिङ्ग हो जाते हैं। जैसा कि अपरा जघन्या आदि मूलमें पाठ दिया गया है।
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