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___ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [चतुर्थोऽध्यायः . अर्थ-विजयादिक पाँच अनुतर विमान जो बताये हैं, उनमेंसे सर्वार्थसिद्धको छोड़कर बाकी चार विमानोंके देव द्विचरम हैं । द्विचरम कहनेका अभिप्राय यह है, कि इन विमानोंसे च्यत होकर दो बार जन्म धारण करके निर्वाणको प्राप्त हो जाते हैं । सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमानके देव एक भव धारण करके ही सिद्ध हो जाते हैं। बाकी सम्यग्दृष्टियोंके लिये आगमोक्त सामान्य नियमके अनुसार यथायोग्य समझ लेना चाहिये
भावार्थ-इस कथनसे कोई यह समझ सकता है, कि एक जीव जो विजय वैजयन्त जयन्त या अपराजितमेंसे किसी भी विमानमें उत्पन्न हुआ और वहाँकी आयु पूर्ण करके मनुष्य हुआ । यह एक जन्म हुआ । पुनः दूसरा जन्म धारण करके मनुष्य भवसे फिर मनुष्य होकर-मोक्षको प्राप्त हुआ करता है । परन्तु यहाँपर नियम जो बताया है, उसका ऐसा अभिप्राय नहीं है । उसका आशय यह है, कि विजयादिक विमानोंसे दो जन्म धारण करके मोक्षको जाया करते हैं । अर्थात् एक जीव विजयादिकमें उत्पन्न होकर मनुष्य हुआ, मनुष्य होकर फिर विजयादिकमें गया, विजयादिकसे पुनः मनुष्य होकर मुक्त होता है। इसके सिवाय दो जन्म धारण करनेका अभिप्राय ऐसा भी नहीं समझना चाहिये, कि इनको अवश्य ही दो जन्मधारण करने पड़ें। परिणामोंके अनुसार एक भव धारण करके भी मुक्त हो सकते हैं। क्योंकि दोका नियम उत्कृष्टताकी अपेक्षासे है।'
भाष्यम्-अत्राह-उक्तं भवता जीवस्यौदायिकेषु भावेषु तिर्यग्योनि-गतिरिति । तथा स्थितौ " तिर्यग्योनीनां च " इति । आस्रवेषु " माया तैर्यग्योनस्य" इति । तत्के तिर्यग्योनय इति ? अत्रोच्यते
अर्थ-प्रश्न-दूसरे अध्यायके छठे सूत्रका व्याख्यान करते हुए जो जीवके औदयिक भाव गिनाये हैं, उनमें आपने तिर्यग्योनि गतिका भी उल्लेख किया है। तीसरे अध्यायके अन्तमें आयुकी स्थितिका वर्णन करते हुए सूत्र १८ " तिर्यग्योनीनां च " में भी तिर्यग्योनि शब्दका उल्लेख किया है। इसी प्रकार छट्रे अध्यायमें आस्रवके प्रकरणमें " माया तैर्यग्योनस्य " ( सूत्र १७) में भी इसका नामोल्लेख किया है । इस प्रकार अनेक स्थलोंपर तिर्यग्योनि शब्दका उल्लेख करके भी अभीतक यह नहीं बताया, कि वे तिर्यग्योनि कौन हैं ! अर्थात्-संसारी जीव चार गतियोंमें विभक्त हैं-नारक तैर्यग्योन मानुष और देव । इनमेंसे
१-द्विचरमताका अर्थ कोई कोई ऐसा करते हैं, कि-विजयादिकसे च्युत होकर मनुष्य हुआ, और मनुष्य से फिर सर्वार्थसिद्धिमें गया । वहाँसे च्युप्त होकर मनुष्य होकर सिद्धिको प्राप्त हो जाता है। परन्तु ऐसा अर्थ "ठीक नहीं है । क्योंकि इससे सर्वार्थसिद्धिका अतिशय प्रकट होता है, न कि विजयादिकों का । सर्वार्थसिद्धिके देव एक मनुष्य भव धारण करके मोक्षको जाते हैं, यह नियम है । विजयादिके दवोंको प्रतनुकर्मवाला लिखा है यथा-" अणुत्तरोववादियाणं देवा णं भंते ! केवइएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववादियत्तेण उववन्ना ? गोयमा ! जावतिअन्नं छठभतीए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेइ एवतिएणं कम्मावसेसेण अणुत्तरो ववाइयत्ताए उववन्ना ॥"
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