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सूत्र २५-२६-२७ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अन्त इन्होंने कर दिया है, इसलिये भी इनको लोकान्तिक कहते हैं । क्योंकि इन्होंने कर्मोंके क्षयका अभ्यास कर लिया है, अब ये मनुष्य-पर्यायको धारण करके नियमसे मुक्त होनेवाले हैं । अतएव अनुभावकी अपेक्षासे भी इनमें विशेषता है। आठ दिशाओंमें रहनेके कारण ही लोकान्तिकोंके आठ भेद हैं। अर्थात् लोकान्तिकोंकी आठ जाति हैं। एक एक जातिके लोकान्तिक एक एक नियत दिशामें रहते हैं। उन आठ भेदोके नाम बतानेके लिये सूत्र कहते हैंसूत्र-सारस्वतादित्यवहन्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतः ॥२६॥
भाष्यम्-एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा ब्रह्मलोकस्य पूर्वोत्तरादिषु दिक्षु प्रदक्षिणं भवन्ति यथासख्यम् । तद्यथा-पूर्वोत्तरस्यां दिशिसारस्वताः, पूर्वस्यामादित्याः, इत्येवं शेषाः।
अर्थ-ये सारस्वत आदि आठ प्रकारके देव ब्रह्मलोककी पूर्वोत्तरादिक दिशाओंमें क्रमसे प्रदक्षिणारूपसे रहते हैं । जैसे कि पूर्वोत्तर दिशामें सारस्वत, पूर्व दिशामें आदित्य, इसी प्रकार शेष बह्नि आदिके विषयमें समझना चाहिये ।
भावार्थ-पूर्व और उत्तर दिशाके मध्यमें सारस्वत, पूर्व दिशामें आदित्य, पूर्व और दक्षिणके मध्यमें वन्हि, दक्षिणमें अरुण, दक्षिण और पश्चिमके मध्यमें गर्दतोय, पश्चिममें तुषित, पश्चिम और उत्तरके मध्यमें अव्यावाध, और उत्तर दिशामें मरुत् नामक लोकान्तिक देवोंका निवासस्थान है। आठोंके मध्यमें अरिष्ठ नामका एक विमान और है । इस प्रकार कुल मिलाकर लोकान्तिकोंके नौ भेद हैं, और शास्त्रोंमें नौ भेद ही बताये हैं । यहाँपर ग्रन्थकारने जो आठ भेद गिनाये हैं, वे दिग्वर्तियोंके हैं। ब्रह्मलोकके बाहर आठ दिशामें रहनेवाले आठ ही हैं।
___ उपर यह बात बता चुके हैं, कि अच्युतपर्यन्त कल्पोंके देव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों ही प्रकारके हैं, और ग्रैवेयक तथा अनुत्तरवासी सभी देव सम्यग्दृष्टि हैं । सम्यग्दृष्टियोंके लिये यह नियम है, कि जिनका सम्यक्त्व छूटा नहीं है, ऐसे भव्यजीव ज्यादः से ज्यादः सात आठ भव और कम से कम दो तीन भव संसारमें बिताकर अवश्य ही निर्वाणको प्राप्त हो जाते हैं। यह सामान्य नियम सभीके लिये है, वही विजयादिक अनुत्तरवासियोंके लिये भी समझा जा सकता था । परन्तु उनमें कुछ विशेषता है । अतएव उस विशेषताको बतानेके लिये ही सूत्र करते हैं:
सूत्र-विजयादिषु द्विचरमाः ॥ २७ ॥ ___ भाष्यम्-विजयादिष्वनुत्तरेषु विमानेषु देवा द्विचरमा भवन्ति । द्विचरमा इति तत. अच्युताः परं द्विर्जनित्वा सिध्यन्तीति । सकृत् सर्वार्थसिद्धमहाविमानवासिनः, शेषास्तु भजनीयाः॥
१-" व्यावाधारिष्टामरुतः” इति " व्यावाधारिष्ठाश्चेति च पाठान्तरे ।
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