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________________ सूत्र १५ ।] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २११ जिसका कि स्वरूप इस प्रकार है-निर्विभाग पुद्गल द्रव्यको परमाणु कहते हैं, उसकी क्रिया जब परम सूक्ष्म-अत्यन्त अलक्ष्य हो, और जब कि वह सबसे जघन्य गतिरूपमें परिणत हो, उस समयमें अपने अवगाहनके क्षेत्रके व्यतिक्रम करनेमें जितना काल लगता है, उसको समय कहते हैं । अर्थात् जिसका फिर दूसरा विभाग कभी नहीं हो सकता, ऐसे पुद्गल द्रव्यके अण-परम अणकी क्रिया जब सबसे अधिक सूक्ष्मरूप हो, और उसी समयमें वह आकाशके जिस प्रदेशपर ठहरा हुआ है, उससे हटकर-सर्वजघन्य-अत्यन्त मन्द गतिके द्वारा अपने निकटवर्ती दूसरे प्रदेशपर जाय, तो उसको अपने अवगाहनका व्यतिक्रम कहते हैं, इस व्यतिक्रममें, अर्थात् मन्दगतिके द्वाग उस परमाणुको अपने अवगाहित प्रदेशसे दूपरे प्रदेशपर जानेमें जितना काल लगता है, उसको समय कहते हैं। परमाणु और उसके अवगाहित आकाश प्रदेशकी अपेक्षा संक्रान्तिके काल-समयको भी अविभाग परम निरुद्ध और अत्यन्त सूक्ष्म कहते हैं । सातिशय ज्ञानके धारण करनेवाले भी इसको कठिनतासे ही जान सकते हैं । इसके स्वरूपका वचन द्वारा निरूपण भी नहीं हो सकता । जो परमर्षि हैं, वे आत्मप्रत्यक्षके द्वारा उसको जान सकते हैं, परन्तु उसके स्वरूपका निरूपण करके दूसरों को उसका बोध नहीं करा सकते । जो परमर्षि-अनुपम लक्ष्मीके धारक और छमस्थ अवस्थाको नष्ट कर कैवल्यको प्राप्त हो चुके हैं, वे भगवान् भी ज्ञेयमात्रको विषय करनेवाले अपने केवलज्ञानके द्वारा उसको जान लेते हैं, परन्तु दूसरोंको उसके स्वरूपका निर्देश नहीं करते; क्योंकि वह परम निरुद्ध है। उसके स्वरूपका निरूपण जिनके द्वारा हो सकता है, ऐसी भाषार्गणाओंको वे केवली भगवान् जबतक ग्रहण करते हैं, तबतक असंख्यात समय हो जाते हैं । समय परम निरुद्ध-अत्यल्प-इतना छोटा है, कि उसके विषयमें पुद्गल द्रव्यकी भाषावर्गणाओंका ग्रहण और परित्याग करनेमें इन्द्रियोंका प्रयोग हो नहीं सकता-असंभव है। ___ इस प्रकार समयका स्वरूप है। यह कालकी सबसे छोटी-जघन्य पर्याय है। असंख्यात समयोंकी एक आवली-आवलिका होती है । संख्यात आवलिकाओंका एक उच्छास अथवा एक निःश्वास होता है । जो बलवान् है-जिसके शरीरकी शक्ति क्षीण नहीं हुई है, १-समय कालकी पर्याय होनेसे अमूर्त है-और वह सबसे जघन्य है । अतएव प्रत्यक्ष ज्ञानों से केवल, ज्ञानका ही वह विषय हो सकता है। अथवा श्रुतज्ञानसे अनुमान द्वारा जाना जा सकता है । २-घटादिकके समान उसका साक्षात्कार नहीं करा सकते, और न यही बता सकते हैं, कि वह अब शुरू हुआ और अब पूर्ण हुआ । क्यों नहीं बता सकते और इसका कारण क्या है, सो आगे चलकर इसकी व्याख्या में लिखा है। ३-वायुको भीतर खींचनेको उच्छास और कोष्टस्थ वायुके बाहर निकालनेको निःश्व स कहते हैं । यह श्वासोच्छासका स्वरूप मनुष्यगतिकी अपेक्षासे समझना चाहिये । क्योंकि देवोंके श्वासोच्छासका प्रमाण इससे बहुत बड़ा होता है । उनके श्वासोच्छासका प्रमाण उनकी आयुके हिसाबसे हुआ करता है । वह इस प्रकार है, कि जितने सागरकी आयु होती है, उतने ही पक्ष पीछे वे श्वास लेते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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