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________________ • सूत्र १४ - १५ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । कार्यके करनेसे उसके लिये नित्य शब्दका प्रयोग हुआ समझ लेना चाहिये । नृलोक में ज्योतिष्कों की गति नित्य कदाचित् गमन नहीं करता, तो भी उसकी अपेक्षा नहीं सभीकी गति नित्य मानी है । २०९ करता है । इसी तरह प्रकृतमें भी मानी है । सो उनमेंसे कोई कोई । सामान्यतया प्राधान्यकी अपेक्षा से मनुष्यलोकमें ज्योतिष्क विमान मेरुकी नित्य प्रदक्षिणा देते हुए गमन - भ्रमण करते हैं, ऐसा कहनेका एक अभिप्राय यह भी है, कि इनकी गति दक्षिण भागके द्वारा हुआ करती है, न कि वाम भागके द्वारा | इसी लिये सत्र में प्रदक्षिणा शब्दका प्रयोग किया है । अर्थात् सूर्य आदिक जो भ्रमण करते हैं, सो पूर्व दिशासे दक्षिण दिशा की तरफ घूमते हुए करते हैं, न कि उत्तर दिशा की तरफ घूमते हुए । यहाँपर यह प्रश्न हो सकता है, कि इन सूर्य आदि ज्योतिष्क विभागों की गतिको हो काल शब्द के द्वारा अनेक लोग कहा करते हैं, सो उनका यह कहना सत्य है या मिथ्या ? इसका उत्तर यह है, कि वास्तवमें काल यह गति शब्दका वाच्य नहीं है । किन्तु कालके भत भविष्यत् और वर्तमानरूप जो भेद हैं, वे इस गतिके द्वारा सिद्ध होते हैं । इस अभि प्रायको दिखानेके लिये ही आगे सूत्र करते हैं: I सूत्र - तत्कृतः कालविभागः ॥ १५ ॥ भाष्यम् - कालोऽनन्तसमयः वर्तनादिलक्षणः इत्युक्तम् । तस्य विभागो ज्योतिष्काणां गतिविशेषकृतश्चारविशेषेण हेतुना । तैः कृतस्तत्कृतः । तद्यथा - अणुभागाश्चारा अंशाः कला लवा नालिका मुहूर्ता दिवसा रात्रयः पक्षा मासा ऋतवोऽयनानि संवत्सरा युगमिति लौकिकसमोविभागः । पुनरन्यो विकल्पः प्रत्युत्पन्नोऽतीतोऽनागत इति त्रिविधः ॥ पुनस्त्रिविधः परिमाध्यते संख्येयोऽसंख्येयोऽनन्त इति ॥ अर्थ — वर्तना औदि हैं लक्षण जिसके ऐसा काल द्रव्य अनन्त समयके समूह रूप है, यह बात पहले लिख चुके हैं। उस कालका विभाग इन ज्योतिष्क देवों के विमानोंके गतिविशेषके द्वारा हुआ करता है। सूर्य चन्द्र आदिकी गतिको ही चार कहते हैं। यह चार सूर्य और चन्द्र आदिका भिन्न भिन्न प्रकारका है । किंतु जिसका जैसा चार है, वह उसका नियत है, अतएव उसके द्वारा कालका विभाग सिद्ध होता है, और इसी लिये उस विभागको तत्कृत -- ज्योतिष्कदेवोंका किया हुआ कहते हैं, यह विभाग सर्व जघन्यसे लेकर सर्वोत्कृष्ट तक अनेक भेदरूप है । यथाअणुभाग चार अंश कला लव नालिका ( नाली) मुहूर्त दिन रात्रि दिनरात्रि पक्ष महीना ऋतु १ - वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वलक्षणः कालः " वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये काल - द्रव्य लक्षण हैं। २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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