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सूत्र १२-१३।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
धातकीखण्डमें जो पर्वत हैं, वे तो पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध दोनों ही भागोंमें गाडीके पहियेके अरोंकी तरह अवस्थित हैं । और अरोंकी मध्यवर्ती जगहकी तरह क्षेत्र अवस्थित हैं। पर्वतोंकी उँचाई निषधगिरिके समान समझनी चाहिये । ये पर्वत एक बाजूमें तो कालोदधिसमुद्रके नलका और दूसरी बाज़्में लवण समुद्रके जलका स्पर्श करनेवाले हैं । क्योंकि धातकीखण्डके दोनों भागोंमें ये दो समुद्र अवस्थित हैं। तथा इन पर्वतोंके साथ साथ पाँच सौ योजन ऊँचे इष्वाकारपर्वत भी अवस्थित हैं।
भावार्थ---जम्बूद्वीपको घेरे हुए लवण समुद्र है, और लवण समुद्रको घेरे हुए धातकीखण्ड नामका दूसरा द्वीप है । उक्त प्रमाणके अनुसार धातकीखण्डका विष्कम्भ ४ लाख योजनका है । जिस प्रकार जम्बू वृक्षके निमित्तसे पहले द्वीपकी जम्बूद्वीप संज्ञा है, उसी प्रकार धातकी वृक्षके निमित्तसे इस द्वीपकी धातकीखण्ड संज्ञा है । यहाँपर भरतादि क्षेत्रोंकी और हिमवदादि पर्वतों तथा नदी सरोवरादिकी संख्या जम्बूद्वीपसे दूनी है । जम्बूद्वीपमें एक भरत है, यहाँपर दो हैं, इत्यादि सभी क्षेत्र और पर्वतादिक दूने समझने चाहिये । संज्ञाएं सबकी जम्बूद्वीपके समान ही समझनी चाहिये । धातकीखण्डके ठीक मध्य भागमें किन्तु एक उत्तरमें और दूसरा दक्षिणमें इस तरह दो इष्वाकारपर्वत पड़े हुए हैं, जोकि दक्षिण उत्तर लम्बे हैं, और इसी लिये लवणसमुद्र तथा कालोदधिसमुद्रका स्पर्श कर रहे हैं। इसके निमित्तसे ही धातकीखण्डके दो भाग होगये हैं, एक पूर्वार्ध दूसरा पश्चिमार्ध । दोनों ही भागोंमें भरतक्षेत्रादिकी रचना है । अतएव जम्बूद्वीपकी अपेक्षा यहाँके भरतक्षेत्रादिकका प्रमाण दूना कहा जाता है। धातकीखण्डका आकार गाड़ीके पहियेके समान है, जिसमें कि अरोंकी जगह पर्वत तथा अरोंके मध्यवर्ती छिद्रोंकी जगह क्षेत्र हैं। यहाँके वर्षधर पर्वतोंकी उँचाई चार सौ योजनकी है।
जिस प्रकारकी रचना धातकीखण्डमें है, ठीक वैसी ही रचना पुष्करार्धमें है। इसी बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-पुष्कराधं च ॥ १३ ॥ भाष्यम्-यश्च धातकीखण्डे मन्दरादीनां सेष्वाकारपर्वतानां संख्याविषयनियमः स एव पुष्करार्धे वेदितव्यः॥
ततः परं मानुषोत्तरो नाम पर्वतो मानुषलोकपरिक्षेपी सुनगरमाकारवृत्तः पुष्करवरद्वीपार्धविनिविष्टः काञ्चनमयः सप्तदशैकविंशतियोजनशतान्युच्छ्रितः चत्वारि त्रिंशानि कोशं चाधो धरणीतलमवगाढो योजनसहस्रं द्वाविंशमधस्ताद्विस्तृतः सप्तशतानि त्रयोविंशानि मध्ये चत्वारि चतुर्विशान्युपरीति ॥
१ ये वृक्ष वनस्पतिकाय नहीं हैं, किन्तु पृथ्वीके एक विकार हैं, जोकि इस तरहके वृक्षके आकारमें परिणत हो गये हैं। यह परिणमन अनादि और अकृत्रिम है। इनका विशेष वर्णन तिलोय पण्णति-त्रिलोकप्रज्ञप्ति और त्रिलोकसारादिक ग्रंथों में देखना चाहिये । २-क्षेत्रोंकी लम्बाई चौड़ाई आदिका प्रमाण तत्त्वार्थराजवार्तिक आदिसे जानना चाहिये।
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