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________________ सूत्र ६ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थ-चार प्रकारका ज्ञान–मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान । तीन प्रकारका अज्ञान-मत्यज्ञान श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान । तीन प्रकारका दर्शन-चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन । पाँच प्रकारकी लब्धि-दानलब्धि लाभलब्धि भोगलब्धि उपभोगलब्धि और वीर्यलब्धि । एक प्रकारका सम्यक्त्व और एक प्रकारका चारित्र तथा एक प्रकारका संयमासंयम । इस तरह कुल मिलाकर अठारह क्षायोपशमिकभाव होते हैं । __ . भावार्थ-ज्ञानावरणादिक आठ कर्मो से चार घाती और चार अघाती हैं। घातीकोंमें दो प्रकारके अंश पाये जाते हैं-एक देशघाती दूसरे सर्वघाती । देशघातीकर्मोंके २६ भेदे हैं। इन्ही धातीकर्मोंके क्षयोपशमसे आत्मामें क्षायोपशमिकभाव जागृत हुआ करता है। ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे चार प्रकारका ज्ञान क्षायोपशमिक होता है। तीन प्रकारके ज्ञान ही मिथ्यादर्शनसे सहचरित होनेके कारण अज्ञान कहे जाते हैं, अतएव वे भी क्षायोपशमिकही हैं । तीन प्रकारका दर्शन भी दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमसे हुआ करता है, अतएव वह भी क्षायोपशमिक ही है। इसी तरह लब्धि आदिके विषयमें भी समझ लेना चाहिये । संयमासंयम अप्रत्याख्यानावरणकषायके क्षयोपशमसे हुआ करता है, जो कि श्रावकके बारहे व्रतरूप है। यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि इस सूत्रों सम्यक्त्व और चारित्रका ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है । क्योंकि पहले सूत्रमें इनका ग्रहण किया गया है, वहींसे इस सूत्रमें भी उनका अनुकर्षण हो सकता था। परन्तु यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि इनका पहले सूत्रमें पाठ नहीं किया गया है, किन्तु च शब्दके द्वारा उनका पूर्वसूत्रसे अनुकर्षण किया गया है, और इस तरह अनुकर्षण द्वारा आये हुए शब्दोंका सूत्रान्तरमें पुनः अनुकर्षण न्यायानुसार नहीं हो सकता । अतएव सूत्रमें इन दोनों शब्दोंका पाठ करना ही आवश्यक और उचित है। क्रमानुसार औदयिकके २१ भेदोंको गिनाते हैं सूत्र-गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धत्वलेश्याश्चतुश्चतुरुयककैकैकषड्भेदाः॥६॥ १-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय । २-ज्ञानावरणकी ४ दर्शनावरणकी ३ और सम्यक्त्वप्रकृति तथा संज्वलनकी ४ नोकषायकी ९ और अन्तरायकी ५ यथा-" णाणावरणचउक्कं तिदसणं सम्मगं च संजलणं । णव गोकसाय विग्धं छब्बीसा देशवादीओ ॥ ४० ॥ ( गोम्मटसार-कर्मकांड ) २-हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह इस तरह पाप पाँच प्रकारके हैं । ये दो प्रकारसे हुआ करते हैंसंकल्पपूर्वक और आरम्भनिमित्तक श्रावक अवस्थामें संकल्पपूर्वक इन पाँच पापोंके त्यागकी अपेक्षा संयम और आरम्भनिमित्तक पापोंका त्याग न हो सकनेकी अपेक्षा असंयम रहता है, अतएव श्रावकके व्रतोंको संयमासंयम कहते हैं । इन पाँच पापोंके संयमासंयमरूप त्यागको पंचअणुव्रत और अध्याय ७ सूत्र १६ में बताये गये दिग्वतादिक, ७ शीलको मिलानेसे श्रावकके १२ व्रत होते हैं । ३-" चानुकृष्ट मुत्तरत्र नानुवर्तते । " ऐसा नियम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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