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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीयोऽध्यायः अर्थ — ज्ञान दर्शन दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य ये सात भाव और पूर्व सूत्रमें जिनका नामोल्लेख किया गया है, वे दो- सम्यक्त्व और चारित्र इस तरह कुल मिला कर नौ क्षायिक भाव होते हैं । ७८ भावार्थ - प्रतिपक्षी कर्मके सर्वथा निःशेष हो जानेपर आत्मामें ये नौ भाव प्रकट हुआ करते हैं । ज्ञानावरणकर्मका नाश होनेपर क्षायिकज्ञान - केवलज्ञान उत्पन्न होता है । दर्शनावरण कर्मके क्षीण होनेपर क्षायिक दर्शन - अनंतदर्शन उद्भूत हुआ करता है । अन्तरायकर्मके आमूल नष्ट हो जानेपर दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य ये पाँच भाव आविर्भूत होते हैं। इसी तरह सम्यग्दर्शनके घातनेवाली उपर्युक्त सात प्रकृतियोंके सर्वथा क्षीण होनेपर क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्रमोहनीयका सर्वथा क्षय होनेपर क्षायिकचारित्र प्रकट होता है । इनमें से क्षायिकसम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें तक किसी भी गुणस्थानमें उद्भूत हो सकता है, और क्षायिकचारित्र बारहवें गुणस्थान में ही प्रकट होता है, तथा बाकीके अनन्तज्ञानादिक सात भाव तेरहवें गुणस्थानमें ही प्रकाशित हुआ करते हैं । सम्यक्त्व चारित्र और ज्ञान दर्शनका लक्षण पहले लिख चुके हैं । दानका लक्षण आगे चलेकर लिखेंगे कि “ स्वस्यातिसर्गो दानम् । " अर्थात् रत्नत्रयादि गुणोंकी सिद्धिके लिये अपनी कोई भी आहार औषध शास्त्र आदि वस्तुका वितरण करना इसको दान कहते हैं । लाभ नाम प्राप्तिका है, और जो एक बार भोगनेमें आ सके उसको भोग तथा जो बार बार भोगने में आ सके उसको उपभोग कहते हैं । एवं वीर्य नाम उत्साह शक्तिका है । ये इन भावों के सामान्य लक्षण हैं । विशेषरूपसे क्षायिक अवस्था में यथासम्भव घटित कर लेने चाहिये । 1 1 प्रश्न- सिद्धत्वभाव भी क्षायिकभाव है, सो उसका भी इनके साथ ग्रहण क्यों नहीं किया ? उत्तर-वह आठों ही कर्मोंके सर्वथा क्षय हो जानेपर सिद्ध अवस्थामें ही प्रकट होता है । अतएव उसके यहाँ उल्लेख करनेकी आवश्यकता नहीं है । क्योंकि ये नौ क्षायिकभाव तो ऐसे हैं, जो कि संसार और मोक्ष दोनों ही अवस्थाओं में पाये जाते हैं । क्षायोपशमिकभावके अठारह भेदोको गिनानेके लिये सूत्र कहते हैंसूत्र - ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्व चारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५ ॥ भाष्यम् – ज्ञानं चतुर्भेदं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानमिति । अज्ञानं त्रिभेदं - मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति । दर्शनं त्रिभेदं चक्षुर्दर्शनं अचक्षुर्दर्शनं अवधिदर्शनामिति । लब्धयः पंचविधाः - दानलब्धिः लाभलब्धिः भोगलब्धिः उपभोगलब्धिः वीर्य - लब्धिरिति । सम्यक्त्वं चारित्रं संयमासंयम इत्येतेऽष्टादश क्षायोपशमिका भावा भवन्तीति । १ - अध्याय ७ सूत्र ३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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