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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽध्यायः द्रव्यप्राण नहीं रहते, क्योंकि वे कर्मोकी अपेक्षासे होनेवाले हैं, परन्तु भावप्राण रहते ही हैं। क्योंकि उनमें कर्मोंकी अपेक्षा नहीं है। वे शास्वतिक हैं। जीव दो प्रकारके हुआ करते हैं, एक भव्य दूसरे अभव्य । इनमें से औपशमिक और क्षायिक ये दो स्वतत्त्व भव्यके ही पाये जाते हैं, और बाकीके तीन स्वतत्त्व भव्य अभव्य दोनोंके ही रहा करते हैं । औपशमिक और क्षायिक इन दोनों भावोंकी निर्मलता एकसी हुआ करती है, परन्तु दोनोंमें अन्तर यह है, कि औपशमिकमें तो प्रतिपक्षी कर्मकी सत्ता रहा करती है, किंतु क्षायिकमें बिलकुल भी उसकी सत्ता नहीं पाई जाती । जैसे कि सपंकजलमें यदि निर्मली आदि डाल दी जाय, तो उससे पंकका भाग नीचे बैठ जाता है और ऊपर जल निर्मल हो जाता है, ऐसे ही औपशमिक भावकी अवस्था समझनी चाहिये। यदि उसी निर्मल जलको किसी दूसरे वर्तनमें नितार लिया जाय, तो उसके मूलमें पंककी सत्ता भी नहीं पाई जाती, इसी तरह क्षायिक की अवस्था समझनी चाहिये । क्षायोपशमिकमें यह विशेषता है, कि प्रतिपक्षी कर्मकी देशघाती प्रकृतिका फलोदय भी पाया जाता है। जैसे कि सपंक जलमें निर्मली आदि डालनेसे पंकका कछ भाग नीचे बैठ जाय और कुछ भाग जलमें मिला रहे। उसी प्रकार क्षायोपशमिक भावमें कर्मकी भी क्षीणाक्षीण अवस्था हुआ करती है। गति आदिक भाव जोकि आगे चलकर बताये जायेंगे, वे कर्मके उदयसे ही होनेवाले हैं, और पारिणामिक भावोंमें चाहे वे साधारण हों, चाहे असाधारण कर्मकी कुछ भी अपेक्षा नहीं है वे स्वतः सिद्ध भाव हैं। ये पाँचों भाव अथवा इनमेंसे कुछ भाव जिसमें पाये जाय, उसको जीव समझना चाहिये । यही जीवका स्वरूप है । अब यहाँपर दूसरे प्रश्नके उत्तरमें जीवका लक्षणे बताना चाहिये था, परन्तु वह आगे चलकर लिखा जायगा, अतएव उसको यहाँ लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। इसलिये यहाँपर इन पांचों भावों के उत्तरभेदोंको गिनाते हैं। उनमें सबसे पहले औपशमिकादिक भेदोंकी संख्या कितनी कितनी है, सो बतानेके लिये सूत्र कहते हैं ।- सूत्र-दिनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥ २॥ भाष्यम्--एते औपशमिकादयः पञ्च भावा द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा भवन्ति । तद्यथा--औपशमिको द्विभेदः, क्षायिको नवभेदः, क्षायोपशमिकोऽष्टादशभेदः, औदायिक एकविंशतिभेदः, पारिणामिकस्त्रिभेद इति । यथाक्रममिति येन सूत्रक्रमेणात ऊर्ध्व वक्ष्यामः ॥ अर्थ-ये औपशमिक आदि पाँच भाव क्रमसे दो नौ अठारह इक्कीस और तीन भेदवाले हैं। अर्थात-औपशमिकभावके दो भेद, क्षायिकके नौ भेद, क्षायोपशमिकके अठारह १-क्योंकि यहाँपर जीव शब्दका अभिप्राय सामान्य जीव द्रव्यसे है, न कि आयुःप्राणसम्बन्धी जीवन पर्यायके धारण करनेवाले संसारी जीवसे । यहाँपर स्वतत्त्व शब्दमें स्वशब्दसे आत्मा और आत्मीय दोनोंका ही ग्रहण हो सकता है । २- क्योंकि इसी अध्यायकी आदिमें प्रश्न किये थे, कि जीव क्या है, और उसका लक्षण क्या है ? स्वतत्त्वोंके निरूपणसे पहले प्रश्नका उत्तर तो हो चुका । ३--"उपयोगो लक्षणम् " अध्याय २ सूत्र ८ में लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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