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अथ द्वितीयोऽध्यायः।
भाष्यम्-अत्राह-उक्तं भवता जीवादीनि तत्त्वानीति । तत्र को जीवः कथंलक्षणो वति ? अत्रोच्यते।
अर्थ-प्रश्न-पहले जीवादिक सात तत्त्वोंका आपने नामनिर्देश किया है । उनमेंसे अभीतक किसीका भी स्वरूप नहीं बताया, और न उनका लक्षण विधान ही किया । अतएव सबसे पहले क्रमानुसार जीव तत्त्वका ही स्वरूप कहिये कि वह क्या है, और उसका लक्षण किस प्रकार करना चाहिये कि जिससे उसकी पहचान हो सके ? अतएव इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ही आगेका सूत्र कहते हैं
सूत्र-औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य
स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥१॥ भाष्यम्-औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक औदयिकः पारिणामिक इत्येते पञ्च भावा जीवस्य स्वतत्त्वं भवन्ति।
अर्थः–औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव जीवके स्वतत्त्व हैं।
__ भावार्थ-जो कर्मोके उपशमसे होनेवाले हैं, उनको औपशमिक और क्षयसे होनेवालोंको क्षायिक तथा क्षयोपशमसे होनेवालोंको क्षायोपशमिक एवं उदयसे होनेवाले भावोंको औदयिक कहते हैं। परन्तु जिसके होनेमें कर्मकी अपेक्षा ही नहीं है जो स्वतःही प्रकट रहा करते हैं, उनको पारिणामिकभाव कहते हैं।
यद्यपि इनके सिवाय अस्तित्व वस्तुत्व आदि और भी अनेक स्वभाव ऐसे हैं, जोकि जीवके स्वतत्त्व कहे जा सकते हैं, परन्तु उनको इस सूत्रमें न बतानेका कारण यह है, कि वे जीवके असाधारण भाव नहीं हैं। क्योंकि वे जीव और अजीव दोनों ही द्रव्योंमें पाये जाते हैं। किंतु ये पाँच भाव ऐसे हैं, जोकि जीवके सिवाय अन्यत्र नहीं पाये जाते । इसी लिये इनको जीवका स्वतत्त्व-निज तत्त्व कहा गया है।
यहाँपर जीव शब्दका अभिप्राय आयुकमकी अपेक्षासे जीवन पर्यायके धारण करनेवाला ऐसा नहीं है। क्योंकि ऐसा होनेसे सिद्धोंमें जो क्षायिक तथा पारिणामिक भाव रहा करते हैं, सो नहीं बन सकेंगे। अतएव यहाँपर जीवसे अभिप्राय जीवत्व गुणके धारण करनेवालेका है। जो जीता है-प्राणोंको धारण करता है, उसको जीव कहते हैं। प्राण दो प्रकारके बताये हैं-एक द्रव्यप्राण दूसरे भावप्राण । सिद्ध जीवोंमें यद्यपि
१-इनका खुलासा पृष्ट ७० की टिप्पणी नं० ३ में किया जा चुका है ।
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