SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 51 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि उपवास का प्रायश्चित्त आता है। मुख्य साधु भिक्षाटन के लिए जाते हुए गुरु को न रोके, तो मुख्य साधु को उपवास का प्रायश्चित्त आता है। गीतार्थ यदि भिक्षाटन के लिए जाते हुए गुरु को न रोके, तो उन्हें पूर्वार्द्ध का प्रायश्चित्त आता है। अगीतार्थ साधु यदि भिक्षाटन के लिए जाते हुए गुरु को न रोके, तो उनको भी पूर्वार्द्ध का प्रायश्चित्त आता है। गुरु यदि उनके रोकने से न रुके, तो गुरु को उपवास का प्रायश्चित्त आता है। यदि आचार्य त्रिकालगण की देखभाल न करे, तो उन्हें लघुमास (पूर्वार्द्ध) का प्रायश्चित्त आता है। मार्ग में ग्लान की सेवा करने के लिए, दुर्भिक्ष में बाल-वृद्ध आदि के कार्य के लिए दुर्लभ द्रव्य की प्राप्ति होने पर भी यदि ऐसा दुराग्रह रखे - “मैं आचार्य हूँ, मैं क्यों भिक्षाटन करूं ?", तो ऐसी स्थिति में उसे उपवास का प्रायश्चित्त आता है। कोई साधु गुरु से पृथक् वसति में रहे या उपाश्रय के बाहर रहे, तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। एक उपाश्रय में ही शिष्य सौ हाथ की दूरी पर निःकृष्ट वसति में रहे, तो भी लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। आलोचना के समय गीतार्थ ज्ञानाचार सम्बन्धी गाथा के बोलने के बाद आलोचनाग्राही ने यदि पुस्तक आदि की आशातना की हो, तो उस सम्बन्ध में पूछे। दर्शनाचार सम्बन्धी गाथा के अनन्तर शंका, कांक्षा आदि मिथ्यात्व का सेवन किया हो, तो उसके सम्बन्ध में पूछे। चारित्राचार सम्बन्धी गाथा के अनन्तर पंचमहाव्रत, द्वादशव्रत आदि का भंग हुआ हो, तो उसके सम्बन्ध में पूछे। तपाचार सम्बन्धी गाथा के अनन्तर द्वादश विधि तप का भंग किया हो, तो उसके सम्बन्ध में पूछे। वीर्याचार सम्बन्धी गाथा के अनन्तर शक्ति होने पर भी तप न किया हो एवं आचार का पालन न किया हो, तो उसके सम्बन्ध में पूछे। तत्पश्चात् क्रोध आदि कषाय एवं अठारह पापस्थानकों का सेवन किया हो, तो उसके सम्बन्ध में पूछे । आलोचना में प्राचीनशास्त्रों में तप की जो संज्ञाएँ, अर्थात् नाम बताए गए हैं, उनका तात्पर्य इस प्रकार है - लघुमास, मासलघु या भिन्नमास शब्द से पूर्वार्द्ध, मासगुरु, गुरुमास शब्द से एकासन, पणग शब्द से निर्विकृ ति तप, चउलघु शब्द से आयम्बिल-तप, चउगुरुमास शब्द से उपवास तप का ग्रहण करे - ऐसा शास्त्रज्ञों ने कहा है। एगकल्लाण का अर्थ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy