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आचारदिनकर (खण्ड-४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भक्षण करे, अपेयद्रव्य का पान करे, म्लेच्छ आदि के साथ भोजन करे, अन्य जाति में प्रवेश करे तथा अन्य जाति में विवाह करे, कुप्रतिग्राही ( दुराचारी) के साथ महाहत्या का षडयंत्र रचे, महाहत्या करे, कुप्रतिग्राही ( दुराचारी) का साथ करे ऐसे कुप्रतिग्रह की शुद्धि पूर्व में बताई गई विशोधन - विधि से करे विशोधन के योग्य द्रव्य-प्रायश्चित्त की विधि यहाँ सम्पूर्ण होती है । विद्वानों ने सर्व द्रव्य दोषों की विशुद्धि के लिए राजा के छत्र के नीचे स्नान करने एवं धर्मचर, अर्थात् धार्मिक व्यक्ति का स्पर्श करने की विधि बताई है। इन विधियों के अतिरिक्त शेष शुद्धि की विधियाँ पूर्व में कथित भाव- प्रायश्चित्त की विधियों से जानें। समस्त प्रायश्चित्त दो प्रकार के हैं द्रव्य-प्रायश्चित्त और भाव - प्रायश्चित्त । जितनी बार दोषों का सेवन करे, उतनी ही बार विशोधन करे मुनिजनों ने बारह वर्ष की आयु वाले को बालक तथा ६० वर्ष की आयु वाले को वृद्ध कहा है, उन्हें उनकी आयु के अनुसार ही तप आदि के प्रायश्चित्त कम - अधिक मात्रा में दें। अन्य आचार्यों के मतानुसार द्रव्य - प्रायश्चित्त कर लेने पर पुनः भाव - प्रायश्चित्त दें । आलोचना कभी भी एक हजार उपवास से अधिक की नहीं होती है । एक सौ उपवास से कम उपवासों का पिण्डीकरण, अर्थात् अन्तर्भाव नहीं किया जाता है । गुरु को ज्ञानाचार आदि के क्रम से तथा व्रतादि के क्रम से उनसे सम्बन्धित दोषों के लिए साधु एवं श्रावकों से पूछना चाहिए । घातीकर्मसहित छद्मस्थ मूढ़ मन वाला यह जीव किंचितमात्र स्मरण कर सकता है ( सब नहीं), अतः जो मुझे स्मरण है उनकी तथा जो स्मरण नहीं हो रहें हैं, वे सब मेरे दुष्कृत (पाप) मिथ्या हों । उनके लिए मुझे बहुत पश्चाताप हो रहा है । मैंने मन से जो-जो अशुभ चिंतन किया हो, वचन से जो-जो अशुभ बोला हो तथा काया से जो-जो अशुभ किया हो, मेरा वह सब दुष्कृत मिथ्या हो । जो अहंकार के कारण समुदाय से बहिष्कृत हो गया है, वह दर्प का त्याग करके पुनः समुदाय में प्रवेश करे तथा कंदर्प का त्याग करके पुनः अप्रमत्तभाव से कल्प, अर्थात् आचार - नियमों का पालन करे । आचार्य यदि एकांकी बहिर्भूमि पर जाता है, तो शिष्यों को उपवास का प्रायश्चित्त आता है । गुरु यदि गोचरी के लिए जाए, तो भी शिष्यों को
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