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आचारदिनकर ( खण्ड - ४ )
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
ही हो जाती है। मुनिजनों की शुद्धि तो मात्र जल के छिड़काव से होती है। इस प्रकार उक्त प्राणियों का स्पर्श होने पर उसकी शुद्धि स्नान से हो जाती है स्नान के योग्य प्रायश्चित्त की यह विधि यहाँ सम्पूर्ण होती है।
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विरूद्ध आचरण से उत्पन्न दोषों की शुद्धि करने योग्य प्रायश्चित्त से होती है । शूद्र का दान ग्रहण करे, तो ब्राह्मण को गौ प्रदान करने से उस दोष की शुद्धि होती है । शूद्र सेवी क्षत्रिय की शुद्धि भी उसी प्रकार होती है । ब्राह्मण शास्त्र के विरुद्ध व्यवहार करे तथा शास्त्र के विरुद्ध ज्योतिष का कथन करे, तो एक मास का मौन करने मात्र से उसकी शुद्धि हो जाती है । स्वाध्याय न करने वाले विप्र की शुद्धि एक पक्ष का मौन करने से होती है । विप्र, क्षत्रिय एवं वैश्य के कंठ का सूत्र टूट जाए या प्रमादवश कहीं गिर जाए, तो वह न तो बोले और ही चले । अन्य सूत्र धारण करके ही पैरों से चले और मुहँ से बोले । उसकी शुद्धि के लिए तीन दिन तक जौ का सेवन करे तथा मंत्र का जाप करे। क्षत्रिय दीन-दुःखियों को दान न दे, स्वयं की प्रशंसा करे एवं दूसरों की निंदा करे, तो तीन दिन तक परमात्मा की पूजा एवं उपवास करे तथा सोने का दान देकर उस पाप की विशुद्धि करे । क्षत्रिय संग्राम, गौग्रह ( अर्थात् गाय की रक्षा) तथा युद्धस्थान में युद्ध न करे, उससे निवृत्त या शान्त होकर बैठ जाए, तो उसकी शुद्धि दान देने से होती है। युद्ध में शत्रुसैन्य का नाश करने पर उस पाप की विशुद्धि स्नान करने से ही हो जाती है । करणीय - प्रायश्चित्त की यह विधि यहाँ सम्पूर्ण होती है ।
औषधि के निमित्त, गुरु आदि के आदेश से, दूसरो के बन्धन में होने पर, महत्तराअभियोग की दशा में तथा प्राण नाश की संभावना हो - ऐसी दशा में, जिस गोत्र का न तो आहार ही किया जाता है और न ही कभी पानी ही पीया जाता है, उस व्यक्ति के घर का आहार- पानी ग्रहण करने पर तीन उपवास का प्रायश्चित्त आता है 1 ब्राह्मण यदि किसी अन्य जाति के ब्राह्मण का आहार खाता है, तो उसे पूर्वार्द्ध ( दो प्रहर के पश्चात् भोजन) का प्रायश्चित्त आता है । ब्राह्मण क्षत्रिय का आहार ग्रहण करता है, तो एक बार एकासन का प्रायश्चित्त
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