________________
आचारदिनकर (खण्ड-४) ___47 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि स्पर्शित जल से आचमन करते हैं, उसे स्नान के योग्य प्रायश्चित्त कहा है - यह स्नानार्ह (स्नान योग्य) प्रायश्चित्त की विधि है।
जिन पापों की शान्तिक-पौष्टिक-कर्म, तीर्थयात्रा, देव-गुरु की पूजा, संघ-पूजा आदि कर्म तथा मौन आदि के द्वारा शुद्धि होती हो, उन्हें विचक्षणों ने करणीयार्ह (करने के योग्य) प्रायश्चित्त कहा है।
जिन पापों की एकभक्त, रसत्याग, फलाहारी एकासन द्वारा शुद्धि होती हो, उन्हें तपोर्ह (तप के योग्य) द्रव्य-प्रायश्चित्त कहा गया
जिन पापों की शुद्धि देव-प्रतिमा तथा पुस्तक आदि खरीदकर साधुओं को देने से हो, उसे दानार्ह (दान करने योग्य) बाह्य प्रायश्चित्त कहा जाता है।
अब विशोधनयोग्य प्रायश्चित्त-विधि विस्तारपूर्वक बताते हैं -
तीन बार वमन तथा विरेचन द्वारा दोषों की शुद्धि करे, वमन के बाद कुछ न खाए, विरेचन लेने के बाद जौं चबाए, तत्पश्चात् उसे सात दिन तक भूमि के ऊपर काष्ठ और उदुम्बर वृक्ष के फल, पत्ते डालकर जला दे, तत्पश्चात् पुनः उसे सात दिन तक भूमि पर डाले तथा उसके ऊपर गाय एवं बैल से जोता हुआ हल चलाए - इस प्रकार जलाकर तथा हल चलाकर उसको समाप्त करे। चौदह दिन तक मात्र मुष्टिप्रमाण जौ का आहार ले, सिर के बालों का मुण्डन कराए एवं दाढ़ी बनाए, फिर सात दिन तक पंचगव्य से स्नान करे तथा गाय के दूध से ही प्राण को धारण रखें और कुछ न करे, पाँच दिन तक तीन-तीन चुल्लू पंचगव्य से आचमन करे, मुण्डन करे तथा तीर्थोदक के एक सौ आठ घड़ों से स्नान करे, सुदेव एवं सुगुरु को नमस्कार करे, तत्पश्चात् निर्मलबुद्धि से सज्जनों का सत्कार करे एवं संघ की पूजा करे - यह विशोधनरूप प्रायश्चित्त बताया गया है।
चांडाल, म्लेच्छ, भील, नापित, भड़भूजा, कौआ, मुर्गा, ऊँट, कुत्ता, बिल्ली, व्याघ्र, सिंह, लकड़बग्घा, सर्प, अन्य नीच जाति, कारु (शिल्पी), मांस, अस्थि, चर्म, रक्त, मेद, मज्जा, मल-मूत्र, शुक्र-दन्त, केश एवं अज्ञात व्यक्ति के देह, मृत पंचेन्द्रिय एवं उच्छिष्ट आहारभोजी (भिखारी) का स्पर्श होने पर उसकी शुद्धि स्नानमात्र से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org