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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 44 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि बताई गई है। यति एवं श्रावकवर्ग की यह विशुद्ध प्रायश्चित्त-विधि व्यवहारसूत्र एवं जीतकल्पसूत्र के पदों के अर्थ का यथाशोधन करके बताई गई है। यह प्रायश्चित्त-विधि शिष्यों के स्व-पर हित के लिए श्रीयशोभद्रसूरी के शिष्य श्री पृथ्वीचन्द्रसूरि द्वारा लिखी गई है। व्यवहारसूत्र एवं जीतकल्प के अनुसार यति एवं श्रावक की यह प्रायश्चित्त-विधि है। अब प्रकीर्णक-प्रायश्चित्त एवं भाव-प्रायश्चित्त की विधि बताते प्रायश्चित्त की अन्य विधि इस प्रकार हैं - पापों के अनुसार, प्रायश्चित्त की अनेक विधियाँ हैं। पुन-पुनः उस पाप की पुनरावृत्ति करने के कारण, प्रमाद के कारण तथा अहंकारपूर्वक पापकार्य की पुनरावृत्ति के कारण, आत्मा को बंधन में डालने वाले पाप कर्मों के परिणाम अनेक प्रकार के होते हैं। जीवों के चार से लेकर दस प्राण होते हैं। उनमें से किसी भी एक प्राण की तथा विकलेन्द्रिय जीवों की हिंसा करने पर उनके प्राणों की संख्या के आधार पर नवकारसी से लेकर उपवास तक के प्रायश्चित्त बताए गए हैं। उसके अतिरिक्त अत्यधिक जीवों का घात करने पर अनुमानपूर्वक प्रायश्चित्त दें। अनेक पापों की आलोचना एक ही प्रायश्चित्त में करके एक ही प्रायश्चित्त दें। दृढ़व्रतधारी एवं सबलदेह वालों को शास्त्रानुसार अधिक (उत्कृष्ट) प्रायश्चित्त दें। मध्यम देह वालों (मध्यमशक्ति वालों) को मध्यम एवं निर्बलदेह वालों को, अर्थात् शक्तिहीनों को जघन्य, अर्थात् अल्प प्रायश्चित्त दें। प्रायश्चित्त के प्रति व्यक्ति का आदरभाव व्यक्ति की शक्ति एवं विशेष परिस्थितियों का विचार करके ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। गीतार्थ एवं तत्त्वज्ञों को तो हमेशा ही तीव्र तप करना चाहिए। जिनेश्वर परमात्मा द्वारा तप को प्रायश्चित्त का दसवाँ अंश ही कहा गया है। श्रावकों की प्रायश्चित्त-विधि भी इसी प्रकार की जाननी चाहिए। उस विधि का उपयुक्त रीति से विचार करके लोक में भी उसका पालन किया जाना चाहिए। यहाँ स्याद्वादसिद्धान्त पर आधारित वीतराग के मत में पंचाचार से सम्बन्धित प्रायश्चित्त-विधि बताई गई है। यति एवं श्रावकों की प्रायश्चित्त-विधि में सूक्ष्म भेद है। मालदेह हा प्रायोस्थितियों को तो लायश्चित्त कार जाता है। गीतार परमात्मा प्रायश्चित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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