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आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
27 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
करने पर उस दोष की शुद्धि के लिए उपवास का प्रायश्चित्त बताया गया है । अनंतकाय एवं विकलेन्द्रिय जीवों को अल्प परितापित करने पर प्रायश्चित्त के रूप में एकासन- तप बताया है। उन्हें अत्यधिक संतापित करने पर उसके प्रायश्चित्त हेतु विद्वानों ने आयम्बिल - तप बताया है तथा उनका घात करने पर उपवास का या कभी-कभी बेले का प्रायश्चित्त आता है । असंख्य द्वीन्द्रिय जीवों की हिंसा करने पर दो बेले का प्रायश्चित्त आता है । असंख्य त्रीन्द्रिय जीवों की हिंसा करने पर विद्वानों ने उसकी शुद्धि के लिए तीन बेले का प्रायश्चित्त बताया है । असंख्य चतुरिन्द्रिय जीवों की हिंसा करने पर चार बेले का प्रायश्चित्त आता है । असंख्य असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करने पर पाँच बेले का प्रायश्चित्त आता है। अधिक मात्रा में षट्पदी (जूं) का नाश करने पर भी पाँच बेले का प्रायश्चित्त आता है। पंचेन्द्रिय जीवों का संस्पर्श होने पर उस दोष की शुद्धि हेतु एकासन - तप करे । उनको अल्प संतापित करने पर उस पाप को प्रणाश करने के लिए आयम्बिल - तप करे । उनको अत्यधिक संतापित करने पर उस दोष को नष्ट करने के लिए उपवास करे तथा उनका घात करने पर बेले का प्रायश्चित्त बताया गया है। अधिक मात्रा में पंचेन्द्रिय जीवों का घात करने पर पंचेन्द्रिय जीवों की संख्या के अनुसार बेले करने का निर्देश दिया गया है। प्रमादवश जीव का घात करने पर ही यह प्रायश्चित्त होता है। क्रोधपूर्वक जीव का घात करने पर यह प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है, अर्थात् अन्य प्रायश्चित्त दिया जाता है । अंग का प्रमार्जन किए बिना खुजलाने पर निर्विकृति-तप का प्रायश्चित्त बताया है। प्रमार्जन किए बिना भित्ति, स्तम्भ, आसन का संस्पर्श करने पर, युवती के वस्त्र का संस्पर्श होने पर तथा शरीर एवं भूमि का प्रमार्जन न करने पर - इन सर्व दोषों की शुद्धि के लिए विज्ञजनों ने निर्विकृति का प्रायश्चित्त बताया है। गीले आंवलों का तथा पृथ्वीकाय का मर्दन करने पर, चुल्लूमात्र सचित्त जल का स्पर्श करने पर, पूर्व एवं पश्चात् कर्म दोष लगने पर, मात्र दो कोश लकड़ी के बने हुए बेड़े या नाव से जल को तैरने पर, नदी आदि पार करते समय नाभि तक जल का स्पर्श होने पर, अधिक मात्रा में अग्निकाय का स्पर्श होने पर,
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