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आचारदिनकर (खण्ड-४)
25 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि का प्रायश्चित्त बताया गया है। श्राविका ने जिस तप का नियम (प्रत्याख्यान) लिया है, उसमें यदि वह कुछ खा लेती है, अर्थात् प्रत्याख्यान का भंग हो जाता है, तो उसे पुनः वही तप करना चाहिए, जिस प्रत्याख्यान का भंग हुआ हो। श्रावक-श्राविकाओं के अन्तकर्म, अर्थात् मरणांतिक संलेखना में आलोचना, व्रतग्रहण, क्षमापणा, जिनपूजा, स्वाध्याय एवं अनशन - ये षट्कर्म होते हैं। प्रायश्चित्तअधिकार में यहाँ श्रावकजीतकल्प की प्रायश्चित्त-विधि सम्पूर्ण होती है। ___ अब लघुजीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त की विधि बताते हैं -
साधुओं एवं श्रावकों के प्रायश्चित्त की यह दूसरी शुद्ध विधि भी शास्त्र के आधार पर ही प्रतिपादित की गई है। प्रमादवश पंचाचार का उल्लंघन करने पर पूर्व में यतियों के जो प्रायश्चित्त बताए गए हैं, उनके अनुसार उन्हें प्रायश्चित्त दें। सूत्रों की आशातना करने पर, उसके प्रायश्चित्त के लिए विद्वानों ने आयम्बिलतप बताया है, किन्तु सूत्रों का सम्यक् अर्थ न करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट आशातना में क्रमशः पूर्वार्द्ध (पुरिमड्ड), एकासन एवं आयम्बिल का प्रायश्चित्त आता है। सामान्यतः शास्त्र (जिनवाणी) की आशातना करने पर पाँच एकासने का प्रायश्चित्त आता है। समय पर आवश्यक क्रिया न करने पर तथा स्वाध्याय-प्रस्थापना करके उसे बीच में छोड़ने पर आयम्बिल का प्रायश्चित्त आता है। व्याख्यान के समय स्थापनाचार्य का परित्याग करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। गुरु के आसन की आशातना करने पर, अथवा गुरु के आसन से ऊँचे आसन पर स्थित हो गुरु को वन्दना करने रूप आशातना करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। कायोत्सर्ग एवं गुरु को वन्दन न करने पर भी उपवास का प्रायश्चित्त आता है। अनागाढ़ योगों का देशभंग (आंशिक रूप से भंग) होने पर आयम्बिल तथा सर्वभंग होने पर उपवास का प्रायश्चित्त बताया है। आगाढ़ योगों का देशतः भंग होने पर उपवास तथा सर्वभंग होने पर निरन्तर तीन उपवास (तेले) का प्रायश्चित्त आता हैं। सद्गुणों की, अर्थात् गुणीजनों की निन्दा करने पर निर्विकृति का प्रायश्चित्त आता है। मुनिजनों द्वारा ज्ञानाचार के ये प्रायश्चित्त
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