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________________ आचा 23 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि होने पर, अर्थात् प्रत्याख्यान का भंग हुआ है या नहीं हुआ - ऐसी शंका होने पर पूर्व में कहे गए जप से त्रिगुणा, अर्थात् नौ सौ नमस्कारमंत्र का जप करें। त्यागने योग्य एवं विकृत आहार का दान देने पर भी पूर्ववत् प्रायश्चित्त आता है। कुछ आचार्यों ने शंका आदि के पाँच अतिचारों के आगाढ़रूप में और अनागाढ़रूप में सेवन करने पर प्रत्येक के लिए विशेष रूप से उपवास का प्रायश्चित्त बताया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों का संस्पर्श होने पर उन्हें अल्पतः संतापित करने पर एकासन का प्रायश्चित्त बताया गया हैं। किन्तु उन्हें अत्यधिक परितापित करने पर आयम्बिल का तथा उन्हें मार देने पर, अर्थात् प्राण रहित कर देने पर विद्वानों ने उपवास का प्रायश्चित्त बताया है। पंचेन्द्रिय जीवों का संस्पर्श करने पर एकासन, उन्हें अल्पतापित करने पर आयम्बिल तथा प्रगाढ़ रूप से परितापित करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है एवं उन्हें मारने पर निरन्तर दो उपवास का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रथम व्रत की प्रायश्चित्त-विधि है। स्थूलमृषावाद, व्रत का अतिचार लगने पर जघन्यतः एकासन, मध्यमतः आयम्बिल एवं उत्कृष्टतः उपवास-तप का प्रायश्चित्त आता है। अचौर्यव्रत के अतिचारों का प्रायश्चित्त भी मृषावाद-व्रत के अतिचारों के प्रायश्चित्त की भाँति ही है। अब श्रावकों के स्वपत्नी संतोषव्रत के अतिचारों की प्रायश्चित्त-विधि बताते हैं। गृहीता स्त्री के साथ संभोग करने का प्रायश्चित्त विद्वानों ने उपवास बताया है। इसी प्रकार वेश्या के साथ संभोग करने पर उस दोष की शुद्धि के लिए निरन्तर दो उपवास का प्रायश्चित्त बताया है। हीन जाति की स्त्री या परस्त्री का अज्ञानता से या स्वप्न में भोग करने पर उसके लिए मुनिजनों ने एकासन का प्रायश्चित्त बताया है, किन्तु विशुद्ध कुल की विवाहिता स्त्री का भोग करने पर मूल-प्रायश्चित्त आता है, अर्थात् उसका स्वपत्नी संतोषव्रत भंग हो जाता है। पुरुष द्वारा पुरुष के साथ संभोग करने पर दस उपवास का प्रायश्चित्त आता है। पूर्व में भोगे गए संभोग का चिन्तन करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है, किन्तु सम्भोग के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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