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आचारदिनकर (खण्ड-४)
22 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
पारांचिक - प्रायश्चित्त दें तथा इस बीच उससे तपस्या कराएं। गण के लोगों से बाहर किया हुआ वह ( मुनि) मौनपूर्वक एवं एकाकी रहे । ध्यान करे, फैंकने योग्य आहार को ग्रहण करे तथा चिन्ता से रहित बने । यहाँ पारांचिक-प्रायश्चित्त की यह विधि संपूर्ण होती है । अनवस्थाप्य तपकर्म और पारांचिक ये दोनों प्रायश्चित्त अन्तिम चौदह पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु के समय से विच्छेद हैं। शेष प्रायश्चित्त जब तक जिन शासन है, तब तक रहेंगे। - जीतकल्पानुसार नानाविध प्रायश्चित्तों की यह विधि यहाँ समाप्त होती है 1
जीतकल्प' के अनुसार पूर्व में आगारों के प्रायश्चित्त की विधि संक्षेप में कही गई है। अब सम्यग्दृष्टि श्रावकों की तपरूप प्रायश्चित्त-विधि बताते हैं । वह इस प्रकार है -
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मन से जिनेश्वर परमात्मा के वचनों में शंका होने पर, अन्य धर्म की इच्छा रखने पर, धर्मकरणी के फल में संदेह रखने पर, मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करने पर तथा उनके साथ परिचय रखने पर, मन से इन दोषों का सेवन करने पर आयम्बिल का तथा उससे अधिक तीव्रता से इन दोषों का सेवन करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। परमात्मा को वन्दन न करने पर तथा पूजा के लिए पत्र आदि तोड़ने पर तथा परमात्मा की प्रतिमा हाथ से गिर जाने पर या प्रतिमा का विधिपूर्वक प्रमार्जन न करने पर इन सभी दोषों के प्रायश्चित्त को क्रमशः बताया जा रहा है। प्रत्येक के लिए पच्चीस-पच्चीस नमस्कारमंत्र के जप से इन पाँचों दोषों की शुद्धि करें। इन चारों प्रकार के दोषों की शुद्धि एकासन से भी होती है 1 पार्श्वस्थ आदि मुनियों को गुरुबुद्धि से दान देने पर पच्चीस नमस्कारमंत्र के जप से उस दोष की शुद्धि होती है । पाटी, पुस्तक, आदि ज्ञान के उपकरण हाथ से गिर जाने पर, उन पर पैर लग जाने इन दोषों की शुद्धि पाँच बार नमस्कारमंत्र का जप करने से होती है। मंत्र, ग्रन्थि एवं मुष्टियुक्त प्रत्याख्यानों के भंग हो जाने पर उस दोष की शुद्धि तीन सौ नमस्कारमंत्र के जप से करें। इनकी शंका
पर
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टिप्पणी : मुद्रित प्रति में 'जीवकल्प' छपा है, उसे जीतकल्प होना चाहिए ।
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