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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 21 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि करे। उज्झितभिक्षा का ग्रहण करने वाला हो और कम से कम उपकरण रखे या सर्व उपधि का त्याग करके पाणिपात्र हो जाए, वह ज्येष्ठ को वंदन करे, किन्तु कनिष्ठ उसे वंदन न करें। वह यतियों के बीच रहता तो है, किन्तु यतिजन उसके साथ श्रावकवत् व्यवहार करते हैं, उसके साथ बातचीत नहीं कर सकते हैं, किन्तु अर्हत्-स्तवन वगैरह बोल सकते हैं। आगम को रचने वालों ने अनावृत्त-प्रायश्चित्त की यह विधि बताई है, यहाँ अनावृत्त-प्रायश्चित्त की विधि संपूर्ण होती है। अब पारांचित-प्रायश्चित्त किसे दें, वह बताते हैं - अत्यन्त अहंकार एवं क्रोध के कारण जो हमेशा अरिहंत परमात्मा, आगम, आचार्य, श्रुतज्ञ, गणनायक एवं गुणिजनों की आशातना करे, उसे पारांचित-प्रायश्चित्त दें। स्वलिंग या परलिंग में स्थित होने पर भी जो दुष्ट प्रकृति वाला हो, अत्यधिक कषायी हो, इन्द्रिय विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखता हो, गुरु आदि की आज्ञा का लोप करने वाला हो, अवध्य, अर्थात् मुनि, राजा आदि जो अवध्य कहे गए हैं, उनका वध करने वाला हो, राजा की रानी (अग्रमहिषी) तथा गुरु की पत्नी को भोगने वाला हो, जिसके दोष जन-सामान्य में प्रकट हो चुके हों तथा जो स्त्यानगृद्धि-निद्रा के उदय से महादोष वाला हो, अनंगसेवा, अर्थात् काम-भोग सम्बन्धी प्रवृत्तियों में निरत हो, कुस्थान, अर्थात् दुराचरण का आदर करने वाला हो, सप्त व्यसनों में संसक्त (संलग्न) हो, परद्रव्य को ग्रहण करने के लिए तैयार हो, परद्रोह करने वाला हो, नित्य पैशुन्य का सेवन करने वाला हो - उसे पारांचित-प्रायश्चित्त दें। वह चार प्रकार से दिया जाता है - लिंग की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से एवं आचार की अपेक्षा से। सर्वप्रथम उसे वसति, निवास (निवेश), वाटक, वृन्द, नगर, ग्राम, देश, कुल, संघ, गण से बाहर करे तथा इनमें प्रवेश न करने दें। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से जिसने जिस दोष का सेवन जहाँ किया हो, उसे वहीं पारांचित-प्रायश्चित्त दें। पूर्व में जितने काल तक उसने पाप का सेवन किया है, उतने समय का उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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