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आचारदिनकर (खण्ड-४)
20 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि प्रायश्चित्त बताए गए हैं। यहाँ छेद के योग्य प्रायश्चित्त की विधि सम्पूर्ण होती है।
अब मूल-प्रायश्चित्त के योग्य कौन से अपराध हैं, उन्हें बताते
पंचेन्द्रिय जीव का घात करने वालों, गर्व से मैथुन का सेवन करने वालों तथा समस्त विषयों का आसक्तिपूर्ण सेवन करने वालों को मूल-प्रायश्चित्त दें। इसी प्रकार मूल एवं उत्तर गुणों में दोष लगाने वाले को, तप गर्विष्ठ को, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का घात करने वाले कार्यों में निमग्न रहने वाले को, अवसन्न, पार्श्वस्थ, मूलकर्म आदि करने वाले को, साधु को प्रायश्चित्त के रूप में जो तप दिया गया हो, उस तप से वह भ्रष्ट हो गया हो तथा जो पारांचित-प्रायश्चित्त के योग्य है, उसे सर्वप्रथम पूर्व दीक्षापर्याय का छेद करके मूल-प्रायश्चित्त दें। इस प्रकार जहाँ पारांचित की स्थिति हो, वहाँ तथा जो-जो संयम से भ्रष्ट हों, उन्हें मूल-प्रायश्चित्त दें। इस प्रकार प्रायश्चित्त का वहन करने से उसकी आत्मा निर्मल बनती है। यहाँ मूल-प्रायश्चित्त की विधि संपूर्ण होती है।
अब अनावृत्त (अनवस्थाप्य)- प्रायश्चित्त किसे दें, वह बताते
जो दुष्ट प्रकृति वाला हो, जीवों की हिंसा करने वाला हो, चोरी करने वाला हो, पारांचित-प्रायश्चित्त का बिल्कुल भी भय न रखने वाला हो तथा जो दुष्ट प्रवृत्तियों का सतत (बारंबार) सेवन करता हो, उसे लिंग, क्षेत्र, काल एवं तप का विचार कर अनवस्थाप्य-प्रायश्चित्त दें। लिंग से, अर्थात् वेश से दुष्कर्म किया हो, उसका द्रव्य की अपेक्षा से मुनिवेश ले लेना चाहिए और भाव की अपेक्षा से पुनः उस कार्य को न करे - ऐसा निर्देश देना चाहिए। उसे भावलिंग का धारण करते हुए अन्य क्षेत्र में स्थापित करें। अन्यत्र रखकर जितने समय तक उसने पाप किया है, उतने समय से भी
अधिक उसे तप कराएं। पाप अल्पमात्रा में हो, तो छ:मासी तप करे, किन्तु जिसने परमात्मा की आशातना की हो, वह एक वर्ष तक तप करे। पाप के आधार पर अधिक से अधिक बारह वर्ष तक यह तप
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