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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 19 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अर्थात् सहनशील न हों, उनको विभाजन-अनुसार निर्विकृति से निरन्तर तीन उपवास-तप का प्रायश्चित्त दें। पूर्व में यहाँ प्रायश्चित्त में जो तप-कर्म बताया गया है, वह प्रायश्चित्त मनीषियों द्वारा प्रमाद युक्त व्यक्ति को दिया जाना चाहिए। जो दर्प से युक्त हो, उसे सामान्य से कुछ अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। जो आवृत्तिभाज हो, अर्थात् दोषों का सेवन बार-बार करता हो, उसे अहंकारी व्यक्ति के समान कुछ अधिक प्रायश्चित्त दें। कल्प प्रतिसेवी, अर्थात् यतनापूर्वक सेवन किया हो, तो प्रतिक्रमण या तदुभय, अर्थात् आलोचना एवं प्रतिक्रमण - दोनों प्रायश्चित्त दें। अजयणा प्रमाद है, बलादि का अहंकार दर्प है, कार्य को पुनः करने की आकांक्षा आवृत्ति है तथा आचार के आश्रित आचरण करना कल्प है। इन चारों का सेवन करने से कर्मबन्ध होता है। उनको भी पूर्व में कही गई विधि के अनुसार ही प्रायश्चित्त दें। आलोचना के काल तथा कष्ट को सहने करने की क्षमता को जानकर कम-अधिक या मध्यम प्रायश्चित्त दें। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव अनुकूल हो तथा बहुत गुणवान् व्यक्ति हो, तो उसे अधिक प्रायश्चित्त दें। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावहीन, अर्थात पूर्वापेक्षा कम हो, तो उसे कम प्रायश्चित्त दें। देश-काल आदि एकदम हीन हो, पुन-पुनः वही कर्म करने वाला हो तो उसे अन्य तप सम्बन्धी प्रायश्चित्त दें। इसी प्रकार वैयावृत्यादि करने वाले एवं सुसाधुओं की उपासना करने वाले को भी अन्य तप सम्बन्धी प्रायश्चित्त दें। तप के योग्य प्रायश्चित्त की यह विधि सम्पूर्ण होती है। अब छेद के योग्य कौन है, यह बताते हैं - तपगर्वित (तपस्या का गर्व करने वाला) हो या तप करने में असमर्थ हो, तप पर जिसकी श्रद्धा न हो, तप से भी जिसका निग्रह न हो सके, अतिसंक्लिष्ट परिणामी, गुणों का त्याग करने वाला हो - उसे छेद-प्रायश्चित्त दें तथा जो पार्श्वस्थ आदि का संग करे, उसे भी तप-प्रायश्चित्त के स्थान पर छेद-प्रायश्चित्त दें। साथ ही उसे आजन्म निर्विकृति आदि तप कराएं। वह जब से इसे प्रारम्भ करे, तब से लेकर मृत्युपर्यन्त इसकी आराधना करे। गीतार्थों द्वारा ये छेद के योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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