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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 18 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि में प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में विचार करने की ये चार अपेक्षाएँ हैं। शास्त्र में पुरुष प्रतिसेवना चार प्रकार की कही गई है - १. आवृत्ति २. प्रमाद ३. दर्प एवं ४. कल्प। द्रव्य की अपेक्षा - जहाँ आहार आदि की सुलभता हो, वहाँ अधिक प्रायश्चित्त दें और जहाँ आहार आदि दुर्लभ हो, वहाँ परिस्थिति के आधार पर कम या अधिक प्रायश्चित्त दें। क्षेत्र के अनुसार - क्षेत्र स्निग्ध हो, तो अधिक प्रायश्चित्त दें, किन्तु निर्जल एवं रूक्ष क्षेत्र में मनीषियों को अल्प प्रायश्चित्त देने के लिए कहा गया है। काल के अनुसार - वर्षा और शीतकाल में जघन्यतः निरन्तर तीन उपवास, मध्यमतः निरन्तर चार उपवास एवं उत्कृष्टतः निरन्तर पाँच उपवास का प्रायश्चित्त दें। इसी प्रकार ग्रीष्मऋतु में क्रमशः जघन्यतः पूर्वार्द्ध, मध्यमतः आयम्बिल एवं उत्कृष्टतः निरन्तर दो उपवास का प्रायश्चित्त दें। परिस्थिति की अपेक्षा विभागानुसार किसी तप का प्रायश्चित्त दें। भाव के अनुसार - निरोग व्यक्ति को देखकर निश्चित रूप से अधिक एवं तीव्र तप का प्रायश्चित्त तथा ग्लान की अवस्था को देखते हुए काल का अतिक्रमण करके अल्प प्रायश्चित्त दें। पुरुष प्रतिसेवना के अनुसार - व्यक्ति अगीतार्थ और गीतार्थ, अक्षमावान् और क्षमावान्, अशठ (ऋजु) और शठ (मायावी), दुष्ट और सज्जन, अपरिणामी और परिणामी आदि अनेक प्रकार की प्रकृति के होते हैं, अतः उनकी प्रकृति के अनुसार जघन्यतः, मध्यमतः या उत्कृष्टतः प्रायश्चित्त दें। व्यक्ति को उसकी शारीरिक शक्ति के अनुसार मध्यम, जघन्य या उत्कृष्ट प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं। १. ऋजु २. अतिवक्र ३. अल्पवक्र ४. वैयावच्च करने वाला या दया का पात्र - ऐसे चार प्रकार के व्यक्ति पूर्व में कहे गए हैं। इनके अतिरिक्त जो पुरुष हैं, वे मन्द कहे गए हैं। जो शक्ति, धैर्य, कल्पस्थ एवं सर्वगुणों से युक्त हों, उन्हें विचक्षणों द्वारा अधिक तपरूप प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए और हीन गुणवाला हो, तो उसे कम प्रायश्चित्त दें। जो पालित चारित्र वाले हों, अज्ञातार्थ हों, असह, देखते हुए काल तीव्र तप का प्रायः व्यक्ति को देखकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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