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आचारदिनकर (खण्ड-1 ड-४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
प्रमादवश अप्रतिलेखित घास के आसन पर बैठे, तो उसका वही प्रायश्चित्त आता है, जो एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा का बताया गया है। गुरु की सभी वस्तुओं को उनसे पूछे बिना स्थापित करने आदि सर्व कार्यों में निर्विकृति का प्रायश्चित्त आता है । शक्ति का गोपन करने से, अर्थात् तप, सेवा आदि न करने पर एकासने का प्रायश्चित्त आता है। कपटपूर्वक कार्य करें या अहंकारपूर्वक पंचेन्द्रिय आदि को पीड़ा दे, संक्लिष्ट कर्म करे, अपने शरीर के पोषण हेतु लम्बे समय तक ग्लान व्यक्ति के साथ रहे तथा प्रथम एवं अंतिम पोरसी के समय सर्व उपधि की प्रतिलेखना नहीं करे - इन सब दोषों की शुद्धि चौमासी या संवत्सरी पर भी नहीं करने पर साधुओं को दस उपवास का प्रायश्चित्त आता है, किन्तु गर्व के कारण इसकी तरफ कोई ध्यान न दे या इसकी उपेक्षा करें, तो उसको छेदरूप प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है ।
जीतकल्प के अनुसार यदि आचार्य ( गणाधिपति) को छेद प्रायश्चित्त आता हो, तो भी उसे तपयोग्य प्रायश्चित्त ही दें । जिन-जिन पापों की आलोचना - विधि यहाँ नहीं कही गई है, उनकी उत्कृष्ट छः मास तक की छेदप्रायश्चित्त - विधि यहाँ बताई जा रही है
विशिष्ट छेद - प्रायश्चित्त चार मास या छः मास का होता है । इसके लघु और गुरु - ऐसे दो भेद हैं । लघु विरस, अर्थात् निर्विकृति पर आश्रित है । लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त नीवि आदि के द्वारा पूर्ण होता है । सिद्धान्त के अनुसार पाप के क्रम को जानकर उन पापों के हो जाने पर विरसादिरूप उक्त तप प्रायश्चित्त में दें। यह जो सब कहा गया हैं, वह सब सामान्य विधि के आधार पर कहा गया है । बुधजनों द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुसार प्रायश्चित्त देना विभाग-विधि है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना, अर्थात् जिस रूप में उस दोष का आचरण किया है, उसको सम्यक् प्रकार से ध्यान में रखकर अधिक या कम प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है । अशन आदि की अपेक्षा से द्रव्य का, देश, नगर आदि की अपेक्षा से क्षेत्र का, सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि की अपेक्षा से काल का, तथा ग्लान या स्वस्थ आदि की अपेक्षा से भाव का विचार करना चाहिए । शास्त्र
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