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आचारदिनकर (खण्ड-४) 13 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि का प्रायश्चित्त आता है। विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) एवं अनंतकाय का संस्पर्श, परितापन, महासंतापन तथा उत्थापन करने पर क्रमशः पूर्वार्द्ध, निर्विकृति, आयम्बिल तथा उपवास का प्रायश्चित्त आता है। पंचेन्द्रिय जीव का संस्पर्श, परितापन, महासंतापन तथा उत्थापन करने पर क्रमशः एकासना, आयम्बिल, निरन्तर दो उपवास (बेले) तथा पुनः निरन्तर दो उपवास का प्रायश्चित्त आता है। मृषावाद, अदत्तादान - इन दोनों का द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव की अपेक्षा आचरण करने पर जघन्यतः एकासना, मध्यमतः आयम्बिल एवं उत्कृष्टतः उपवास का प्रायश्चित्त आता है। रात्रि में पात्र वगैरह भोज्यपदार्थ से लिप्त रह जाएं, तो उपवास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार रात्रि में शुष्क भोज्य वस्तुओं के रखने पर बेले का प्रायश्चित्त आता है। कदाचित् रात्रि में अशन-पान का सेवन किया हो, तो सत्त्वशाली मुनिजनों को उसके प्रायश्चित्त के लिए अट्ठम तप, अर्थात् निरन्तर तीन उपवास करना चाहिए।
अतिदारुण फल देने वाले पिण्डैषणा के निम्न सैंतालीस अतिचार हैं। पिण्ड के उद्गम के सोलह दोष, उत्पादना के सोलह दोष, गवैषणा के दस दोष तथा ग्रासैषणा के पाँच दोष - इस प्रकार कुल सैंतालीस दोष हैं।
अब पिण्डैषणा के इन सर्व दोषों की प्रायश्चित्त-विधि बताते हैं। पिण्ड के उद्गम के समय लगने वाले निम्न सोलह दोष बुद्धिमानों के द्वारा बताए गए हैं -
१. आधाकर्मी २. औद्देशिक ३. प्रतिकर्म ४. विमिश्रक ५. स्थापना ६. प्राभृत ७. प्रादुःकरण ८. क्रीत ६. प्रामित्य १०. परिवर्तित ११. अभ्याहृत १२. उद्भिन्न १३. मालापहृत १४. आच्छेद्य १५. अनिसृष्ट और १६. अध्यवपूरक।
पिण्ड के उत्पादन के निम्न सोलह दोष बताए गए हैं -
१. धात्री २. दूती ३. निमित्त ४. जीविका ५. वनीपक ६. चिकित्सा ७. क्रोध ८. मान ६. माया १०. लोभ ११. संस्तव १२. विद्या १३. मंत्र १४. चूर्ण १५. योग और १६. मूलक (मूलकर्म)।
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