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आचारदिनकर (खण्ड-४)
14 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ग्रहणैषणा के निम्न दस दोष बताए गए हैं -
१. शंकित २. म्रक्षित ३. निक्षिप्त ४. पिहित ५. संहृत ६. दायक ७. उन्मिश्र ८. अपरिणत ६. लिप्त और १०. छर्दित (परिभ्रष्ट) - ये दस दोष साधु एवं गृहस्थ-दोनों के निमित्त से लगते
पाँच ग्रासैषणा के निम्न पाँच दोष बताए गए हैं - १. संयोजना २. अप्रमाण ३. अंगार ४. धूम ५. अकारण
इस प्रकार पिण्डैषणा के ये सैंतालीस दोष कहे गए हैं। अब इन सबका यथा योग्य प्रायश्चित्त बताते हैं। उद्गम, उत्पादन, ग्रहणैषणा और ग्रासैषणा के दोष के प्रायश्चित्त प्रायः समान बताए गए हैं।
कर्मऔद्देशिकपिण्ड, परिवर्तितपिण्ड, स्वग्रहपाखण्डमिश्रपिण्ड, बादर प्राभृतिकपिण्ड, सत्प्रत्यवायाहृतपिण्ड के ग्रहण करने पर अथवा लोभवश अतिमात्रा में पिण्ड का ग्रहण करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार प्रत्येक वनस्पतिकाय, अथवा अनंतवनस्पतिकाय से निक्षिप्त पिण्ड के ग्रहण करने पर भी उपवास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार भिक्षा सम्बन्धी संहृतदोष, उन्मिश्रदोष, संयोजनदोष, अंगारदोष आदि दोषों से युक्त पिण्ड एवं निमित्तपिण्ड का उपभोग करने पर भी एक उपवास का प्रायश्चित्त आता है। पुनः कर्मणी, औद्देशिकदोष, मिश्रदोष, धात्रीदोष, प्रकाशकरणदोष, पूर्व-पश्चात्- संस्तवदोष आदि कुत्सित दोषों से युक्त आहार का स्पष्ट रूप से सेवन करने पर तथा उपर्युक्त कुत्सित दोषों से युक्त हाथ या पात्र से पिण्ड ग्रहण करने पर, अथवा इन दोषों से संसक्त, लिप्त, संलग्न, निक्षिप्त, विहित, सहृतपिण्ड का उपभोग करने पर या इन कुत्सित दोषों से मिश्रित पिण्ड का उपभोग करने पर भी मुनि को दोषानुसार आयम्बिल का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार धूमदोष एवं अकारण दोष से युक्त पिण्ड का उपभोग करने पर भी आयम्बिल का प्रायश्चित्त आता है। कृतदोष, अध्यवपूरकदोष एवं पूतिदोषों से युक्त आहार परस्परदोष से युक्त आहार, पात्र में कुछ भी शेष न रहे - इस प्रकार से लेने पर, अथवा मिश्रदोष से युक्त
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