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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
11 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
२५० बार नमस्कारमंत्र का जाप से छ: अर्द्धपौरुषी, एक पाद कम तीन पौरुषी, दो पूर्वार्द्ध, डेढ़ अपराहून या एक बियासने (द्विः अशन) का लाभ मिलता है।
५०० बार नमस्कारमंत्र का जाप करने से सवा छः पौरुषी, चार पूर्वार्द्ध, ढाई अपराहून, दो बियासने का, अथवा एक एकासने का लाभ मिलता है।
६६७ बार नमस्कारमंत्र का जाप करने से पन्द्रह अर्द्धपौरुषी, आठ पौरुषी, साढ़े पाँच पूर्वार्द्ध, साढ़े तीन अपराहून या तीन बियासने, डेढ़ एकासने या एक निर्विकृति का लाभ मिलता है ।
१००० बार नमस्कारमंत्र के जाप से बाईस अर्द्धपौरुषी, बारह पौरुषी से कुछ अधिक, आठ पूर्वार्द्ध, पाँच अपराहून, चार बियासना, दो एकासना, डेढ़ निर्विकृति या एक आयम्बिल का लाभ मिलता है । २००० बार नमस्कारमंत्र के जाप से पैंतालीस अर्द्धपौरुषी, चौबीस पौरुषी, सोलह पूर्वार्द्ध, तीन निर्विकृति, दो आयम्बिल या एक उपवास का लाभ उसी दिन मिलता है ।
जिस प्रकार गुरुव्रत के करने पर लघुव्रत का उसी में समावेश हो जाता है, उसी प्रकार लघुव्रत से भी गुरुव्रत पूर्ण हो जाता है । प्रायश्चित्त एवं उपधान सम्बन्धी तपों में यह परिवर्तन अर्थात् गुरुव्रत के स्थान पर लघुव्रत अशक्त होने की दशा में करें तथा शक्ति हो, तो लघुव्रतसहित गुरुव्रत करें। तप सम्बन्धी विधानों में तथा अन्य कार्यों में जो तप कहा गया है, उसे वैसे ही करें - यह तपयोग्य
प्रायश्चित्त का कथन हुआ ।
काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिहूवन, व्यंजन, अर्थ और तदुभय इन आठ प्रकार के ज्ञानाचार में जो अतिक्रमण होता है, उसे ज्ञानाचार संबंधी अतिचार कहते हैं । ज्ञानातिचार सम्बन्धी अतिचारों के प्रायश्चित्त निम्न हैं- अनागाढ़योग में विशेष कारण होने पर उद्देशक के अतिचार के लिए एक नीवि, अध्ययन के सम्बन्ध में अतिचार के लिए पूर्वार्द्ध, श्रुतस्कन्ध के अतिचार के लिए एकासना और अंगसंबंधी अतिचार के लिए आयम्बिल - तप का प्रायश्चित्त आता है । आगाढ़योग में विशेष कारण हो, तो इन्हीं दोषों के लिए क्रमशः
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