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आचारदिनकर (खण्ड-४)
9 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि । पर, पूज्य गुरु एवं ज्येष्ठ साधुओं के शय्या एवं आसन का परिग्रहण करने पर पच्चीस श्वासोश्वास का कायोत्सर्ग करें। महाव्रतों का भंग करने वाले, हिंसा आदि के स्वप्न आने पर सौ श्वासोश्वास का कायोत्सर्ग करें, चतुर्थ महाव्रत के खंडनरूप मैथुन का स्वप्न आने पर एक सौ आठ श्वासोश्वास का कायोत्सर्ग करें। आचार-मर्यादा का खण्डन होने पर भी यही प्रायश्चित्त करें। दैवसिक-प्रतिक्रमण में १०० श्वासोश्वास का रात्रिक-प्रतिक्रमण में पचास श्वासोश्वास का कायोत्सर्ग करें। पाक्षिक-प्रतिक्रमण में तीन सौ श्वासोश्वास का, चौमासी-प्रतिक्रमण में पाँच सौ श्वासोश्वास का एवं संवत्सरीप्रतिक्रमण में एक हजार आठ श्वासोश्वास का कायोत्सर्ग करणीय है। सभी सूत्रों के उद्देश-समुद्देश एवं अनुज्ञा में सत्ताईस श्वासोश्वास का कायोत्सर्ग करने का विधान है। स्वाध्याय एवं प्रतिक्रमण हेतु प्रस्थान के लिए भी आठ श्वासोश्वास का कायोत्सर्ग करें। सभी कायोत्सर्गों में श्वासोश्वास की संख्या की भिन्नता ही विशेष है। - ये कायोत्सर्ग के योग्य प्रायश्चित्त हैं।
तप के योग्य प्रायश्चित्त निम्न हैं -
ज्ञान सम्बन्धी अतिचार, कालमर्यादा का उल्लंघन, महाव्रतों का खण्डन तथा अन्य पापकारी प्रवृत्ति करने पर तपरूप प्रायश्चित्त करने के लिए कहा गया है। विभिन्न तपों की संज्ञाएँ और उनके सांकेतिक नाम इस प्रकार हैं -
पुरिमड्ढ - पूर्वार्द्ध, मध्याह्न, कालातिक्रम, लघु, विलम्ब और पितृकाल। एकासना - पाद, यतिस्वभाव, प्राणाधार, सुभोजन, अरोग, परम और शान्त। निर्विकृति - अरस, विरस, पूत, निस्नेह, यतिकर्म, त्रिपाद, निर्मद और श्रेष्ठ। आयम्बिल - अम्ल, सजल, आचाम्ल, कामघ्न, द्विपाद, । धातुकृत, शीत और एकान्न। उपवास - अनाहार, चतुपाद, मुक्त, निष्पाप, उत्तम, गुरु, प्रशम और धर्म।
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