SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अब आलोचना एवं प्रतिक्रमण उभय के योग्य प्रायश्चित्त आचारदिनकर (खण्ड- ४) बताते हैं भ्रमवश, भयवश, सहसा या असावधानी के कारण गुरु आदि के अवरोध या संघ की प्रार्थना के कारण, अथवा संघ के महत् कार्य के लिए व्रत के सर्वथा खण्डित होने पर या अतिचार का आचरण करने या दुष्टभाषण ( कटुवचन), दुष्टचिंतन या दुष्टकाय चेष्टा रूप मन-वचन या काया की संयम विरोधी प्रवृत्तियाँ पुनः पुनः करने पर, प्रमादवश, करने योग्य दिन - रात्रि के कर्त्तव्यों का विस्मरण होने पर, आलस्यवश ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का भंग होने पर, अथवा असावधानी के कारण आचार के नियमों का खण्डन होने पर संयमशील साधुओं को उपर्युक्त दोषों की शुद्धि तदुभय, अर्थात् आलोचना एवं प्रतिक्रमण से करनी चाहिए । इसी प्रकार के अन्य दोषों में प्रायश्चित्त करने का निर्देश दिया गया है। तदुभय यह तदुभय के योग्य प्रायश्चित्त का कथन हुआ । अब विवेक के योग्य प्रायश्चित्त बताते है - - अज्ञानतापूर्वक नियम-विरुद्ध भोजन, पानी, वस्त्र, शय्या और आसन का ग्रहण करने पर, सूर्य के उदय एवं अस्त के समय को जाने बिना अशन-पान, उपधि आदि का ग्रहण करने पर, अथवा उक्त समय को जाने बिना कारणवशात् द्रव्यों का भोग - उपभोग करने पर इन सबको बुद्धिमानों ने विवेक - प्रायश्चित्त के योग्य अतिचार कहें हैं - यह विवेकयोग्य प्रायश्चित्त का कथन हुआ । अब कायोत्सर्ग के योग्य प्रायश्चित्त बताते हैं - Jain Education International विहार एवं गमनागमन की क्रिया करने पर, सावद्य ( हिंसक ) स्वप्न देखने पर या हिंसा आदि की घटना सुनने पर, नाव के द्वारा नदी आदि पार करने पर या तैरने पर इन सबकी संशुद्धि तत्त्ववेत्ताओं ने कायोत्सर्ग - प्रायश्चित्त द्वारा बताई है। इसमें विशेष यह है कि भोजन, पान, शय्या, आसन का ग्रहण करने पर चाहे उन्हें विशुद्ध रूप से मर्यादापूर्वक ग्रहण किया गया हो, मल-मूत्र का त्याग करने पर, असावधानी से दूसरों के शरीर के अंगों का संस्पर्श या व्याघात होने पर, सौ हाथ परिमाण से अधिक वसति के बाहर जाने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy