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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि परिपालन करने वाला भी अपने निर्दोष आचरण के अहंकारवश आलोचना न करे, तो उसके व्रतों की भी कभी शुद्धि नहीं होती है, इसलिए शुभ कार्यों को करने पर आलोचना करनी चाहिए । अन्न एवं उपकरण भिक्षा में प्राप्त करने में, उन्हें किसी समाश्रित मुनि को देने में, अथवा उनसे अपने लिए ग्रहण करने में, अथवा किसी प्रकार की प्रवृत्ति या भाषण आदि करने में जो भी शुभाशुभ भाषण या प्रवृत्ति होती है, वह सब गुरु को बताना चाहिए और उसके प्रायश्चित्त आदि के सम्बन्ध में पूछना चाहिए। उन सबकी आलोचना करना आवश्यक (इष्ट) है। किसी कारणवश किसी तपस्वी साधक को स्वगण को छोड़कर अन्यगण में जाना पड़े, तो उसे उपसम्पदा ग्रहण करने के पूर्व आलोचना करनी चाहिए । यहाँ आलोचना प्रायश्चित्तपूर्ण होती है ।
प्रतिक्रमण के योग्य प्रायश्चित्त निम्न हैं
प्रमाद के कारण कभी समिति एवं गुप्तियों का भंग होने पर, गुरु की आशातना होने पर, उनके प्रति विनय का भंग होने पर या इच्छाकार आदि दस सामाचारी का सम्यक् पालन न करने पर, पूज्यों का समुचित आदर न करने पर, अल्प मृषावाद करने पर, विधिपूर्वक, अर्थात् मुखवस्त्रिका का उपयोग किए बिना छींकने, खांसने एवं उबासी आने पर तथा दूसरों से वाद करने पर, संक्लेश उत्पन्न करने पर, लेपादि कार्य करने पर, प्रमादवश हास्य, कन्दर्प ( कुचेष्टा), परनिन्दा एवं कौत्कुच्य करने पर, राज - कथा, स्त्री - कथा, भक्त-कथा तथा देश - कथा करने पर, प्रमादवश कषाय एवं विषयों का सेवन करने पर किसी के सम्बन्ध में यथार्थ से भिन्न कम या अधिक कहने या सुनने पर, वसति से बाहर द्रव्य तथा भाव से संयम में स्खलना होने पर, असावधानी से या सहसाकार से व्रत का भंग होने पर, अल्पमात्र भी रागादिभाव, हास्य एवं भयसेवन करने पर, शोक, प्रदोष, कन्दर्प, वाद-विवाद और विकथा आदि करने पर इन सभी कार्यों के लिए प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त बताया गया हैं । शुद्ध चित्तवृत्ति वाले साधक की प्रतिक्रमणमात्र से ही शुद्धि हो जाती है, प्रतिक्रमण किए बिना कभी शुद्धि नहीं होती - यहाँ प्रतिक्रमण योग्य प्रायश्चित्त सम्पूर्ण होता हैं ।
आचारदिनकर (खण्ड
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