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आचारदिनकर (खण्ड-४)
6 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि उनका अवधारण करें। शिष्य भी कुछ न छिपाए। जैसा कि कहा गया
है -
“जिस प्रकार बाल्यावस्था में बालक किए गए कार्य एवं अकार्य - सब कुछ बता देता है, उसी प्रकार आलोचना करने वाले को आलोचनाकाल में गुरु के समक्ष अपने कार्य एवं अकायों की आलोचना करनी चाहिए।"
तत्पश्चात् श्रुतगामी गुरु उसके सर्वदुष्कृतों को सुनकर अपनी मति के अनुसार तथा उसके द्वारा किए गए दुष्कृतों एवं परिस्थिति के अनुसार उसके योग्य कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण, तप आदि दसविध प्रायश्चित्तों को करने का आदेश दे। दसविध प्रायश्चित्त विधि का अनुचरण आगम में जिस प्रकार बताया गया है, गुरु उसी प्रकार से उसे बताए, जैसे -
१. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. उभय ४. विवेक ५. कायोत्सर्ग ६. तपयोग्य ७. छेदयोग्य ८. मूलयोग्य ६. अनवस्थाप्ययोग्य और १०. पारांचिकयोग्य - इस प्रकार आगम में उपर्युक्त दसविध प्रायश्चित्त-विधि बताई गई हैं।
आलोचना के योग्य प्रायश्चित्त निम्न हैं -
मुनि के लिए अवश्यकरणीय मूलगुण एवं उत्तरगुण सम्बन्धी प्रवृत्तियों में सजग (उपयोगवान्) साधुओं के लिए भी आलोचनारूप शुद्धि आवश्यक है। छद्मस्थ योगीजनों की प्रवृत्तियों में सदैव अतिचार की सम्भावना रहती है, अतः उसकी शुद्धि आवश्यक है। आलोचना के बिना कभी शुद्धि नहीं होती। आहार आदि ग्रहण करने के लिए मल-मूत्र विसर्जन करने के लिए, यात्रा (विहार) हेतु, चैत्यवंदन करने के लिए तथा अन्य उपाश्रयों में रहे हुए साधुओं को वंदन करने के लिए, गृहस्थ को उसके घर पर प्रत्याख्यान कराने हेतु उपाश्रय से बाहर जाने पर, अथवा गुरु के आदेश से प्रयोजन पूर्वक गृहस्थ के घर जाने पर या राजादि के यहाँ किसी शुभ कार्य की मंत्रणा हेतु उपाश्रयभूमि से सौ कदम बाहर जाने पर विचक्षण मुनिजनों को आलोचना करनी चाहिए। इससे विशुद्ध आचार से युक्त मुनिजनों का संयम निर्मल होता है। व्रत, गुप्ति, समिति आदि का पूरी तरह
वा गुरु के आयाख्यान कराने वदन करने
उपायान पर या
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