________________
आचारदिनकर (खण्ड-४) 4 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि की आलोचना नहीं करता है, तो उसका परिणाम यह होता है कि वह दोषों की खान बन जाता है। पाप की आलोचना किए बिना ही कदाच उसकी मृत्यु हो जाती है, तो उस पाप के योग के कारण भवान्तर में उसको दुर्बुद्धि की प्राप्ति होती है। दुर्बुद्धि के कारण वह मूढ़ पुनः प्रचुर मात्रा में पाप करता है। उन पापों से वह सदैव दारिद्रय एवं दुःख को प्राप्त करता है। मरकर घोर नरकगति एवं पशुत्वरूप तिर्यंचगति को प्राप्त करता है तथा पतित एवं दुष्ट कुल में तथा अनार्यभूमि में उत्पन्न होता है, रोगयुक्त खण्डित अंग वाला होता है, प्रचुर मात्रा में पाप करने वाला होता है। उन पापों के द्वारा वह कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म के संश्रित हो जाता है। फिर पश्चाताप करने पर भी वह बोधिबीज को प्राप्त नहीं कर पाता है तथा निगोद, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि योनियों को प्राप्त करता है और अनंत संसार में भ्रमण करता हुआ कष्टमय जीवन व्यतीत करता है - इन दोषों को देखकर व्यक्ति को प्रायश्चित्त अवश्य करना चाहिए।
प्रायश्चित्त करने के लाभ -
प्रायश्चित्त करने से सर्व पापों का शमन और सर्व दोषों का निवारण होता है। पुण्य एवं धर्म की वृद्धि होती है, आत्मसंतोष मिलता है, जीव का दोषरूपी शल्य काँटा निकल जाता है, निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है, पुण्य का संचय होता है और विघ्नों का नाश होता है, कीर्ति का विस्तार होता है तथा स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करने से उपर्युक्त फल की प्राप्ति होती है।
प्रायश्चित्त ग्रहण करने की विधि इस प्रकार है -
मृदु, ध्रुव, चर, क्षिप्र, नक्षत्र तथा मंगलवार एवं शनिवार के अतिरिक्त शेष वार, गोचरी तप, नंदी एवं आलोचना हेतु शुभ कहे गए हैं। शुभ नक्षत्र, तिथि, वार, लग्न एवं गुरु और शिष्य के चंद्रबल में आलोचना करने वाला साधु सर्व चैत्यों में चैत्यवंदन करे। फिर सभी साधुओं को वंदन करे और आयम्बिल तप करे। यदि आलोचना ग्रहण करने वाला गृहस्थ है, तो वह सर्व चैत्यों में बृहत्स्नात्र विधि से महापूजा करे, साधर्मिकवात्सल्य करे, संघपूजा करे एवं साधुओं को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org