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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
सम्पूर्ण श्रुतपाठी हो, गीतार्थ हो, सम्पूर्ण योग किए हुए हो, सर्वशास्त्रों का व्याख्याता हो, छत्तीस गुणों से युक्त हो, शान्त हो, जितेन्द्रिय हो, बुद्धिमान हो, धीर हो, रोगादि से रहित हो, अनिन्दक हो, क्षमाशील हो, ध्याता हो, जितपरिश्रमी हो, तत्त्व के अर्थ को सम्यक् प्रकार से समझकर धारण करने वाला हो, राजा और रंक में समान दृष्टि रखने वाला हो, सदैव श्रुत के आधार पर, अर्थात् उत्सूत्र की प्ररूपणा न हो इसे दृष्टिगत रखकर शुभवचन बोलने वाला हो, प्रमादरहित हो, सदाचारी हो, क्रियावान् हो, निष्कपट हो, हास्य, भय, जुगुप्सा एवं शोक से रहित हो, किए गए पापों के परिमाण को मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान के द्वारा जानने वाला हो, इत्यादि गुणों से युक्त गुरु ही प्रायश्चित्त प्रदान करने के योग्य होता है । प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाले के लक्षण
आचारदिनकर (खण्ड
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संवेगवान् हो, गुणाकांक्षी हो, तत्त्वज्ञ हो, सरल हो, गुरुभक्त हो, आलस्य से रहित हो, शरीर में तप करने की क्षमता हो, बुद्धिमान् हो, स्मृतिवान् हो, अपने शुभ-अशुभ कर्मों को बताने वाला हो, जितेन्द्रिय हो, क्षमाशील हो, सभी कुछ प्रकट करने की क्षमता वाला हो, पाप-कथन में निर्लज्ज हो, स्वप्रशंसा का त्यागी हो, दूसरों पर किए गए उपकारों का गोपन करने वाला हो, अपने दुष्कृत का प्रकाशक हो, पापभीरू हो, पुण्यरूपी धन के प्रति आदरभाव रखने वाला हो, दयावान् हो, दृढ़सम्यक्त्वी हो, पर की उपेक्षा का वर्जन करने वाला हो इस प्रकार के गुणों के धारक साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविकाएँ निश्चित रूप से आलोचना करने के योग्य होते हैं । आलोचना ग्रहण करने का काल
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पक्ष में, चातुर्मास में वर्ष में, प्रमादवशात् किए गए पापों के अन्त में, प्रवीण गुरु के प्राप्त होने पर, तीर्थ में, तप के आरम्भ में एवं किसी महोत्सव के आरम्भ में या अंत में, इत्यादि कालों में प्रायश्चित्त की प्ररूपणा करनी चाहिए ।
प्रायश्चित्त नहीं करने के दोष
यदि लज्जावश, प्रतिष्ठा के कारण, प्रमाद के कारण, गर्व के कारण, अनादर के कारण या मूढ़ता के कारण मनुष्य कभी भी पापों
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