SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 2 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि विषयजन्य तथा मनोगत भावजन्य पातक का विश्लेषण कर उनके परिणामों को जानना तो और भी कठिन है, क्योंकि संख्यातीत भावों की गति विचित्र है, अतः केवलज्ञान के बिना चार ज्ञान के ज्ञाता के लिए भी इन संख्यातीत पापवृत्तियों की प्रायश्चित्त-विधि को जानना कठिन है। फिर भी इस दुषमकाल में श्रुत के अध्येता गीतार्थ द्वारा, अथवा श्रुत के अध्ययन द्वारा प्रायश्चित्त-विधि को किंचित् रूप से जाना जा सकता है, अतः प्रायश्चित्त ग्रहण करने से पूर्व गीतार्थ गुरु की गवेषणा करें। शल्य के उद्धरण के निमित्त से गीतार्थ की गवेषणा में उत्कृष्ट रूप से क्षेत्र की अपेक्षा से सात सौ योजन तक जाएं और काल की अपेक्षा से बारह वर्ष तक गीतार्थ की खोज करें। जीवनपर्यन्त गुरु की सामान्य दशा में कल्प्य तथा अपवादमार्ग में अकल्प्य आहार, औषधि आदि के द्वारा उनकी सेवा करें, क्योंकि कहा गया है कि - यावत् जीवन गुरु की शुद्ध या अशुद्ध वस्तु से सेवा करनी चाहिए। वृषभमुनि (उपाध्याय आदि) की बारह वर्ष तक एवं सामान्य मुनि की अठारह मास तक सेवा करते हुए, यदि काल को प्राप्त हो जाए, तो उसे आलोचना का फल प्राप्त होता है। इस प्रकार बारह बरस के बीच सात सौ योजन तक आर्यदेशों में घूमते हुए यदि आलोचनाग्राही को उस काल में प्रवर्तित समस्त श्रुत को धारण करने वाले गीतार्थ गुरु की प्राप्ति हो जाए, तो वह आलोचना ग्रहण करे। उनकी आज्ञा के अनुसार विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करके वह उन पातकों से छुटकारा पा लेता है। अब १. किसके द्वारा प्रायश्चित्त दिया जाए ? २. कौन उसे स्वीकार करे ? ३. प्रायश्चित्त का काल क्या है ? ४. प्रायश्चित्त नहीं करने के क्या दुष्परिणाम होते है ? ५. प्रायश्चित्त करने के क्या लाभ हैं ? तथा ६. प्रायश्चित्त ग्रहण करने की विधि क्या है ? - यह बताते हैं। ___प्रायश्चित्त की अनुज्ञा (आदेश) देने वाले गुरु के लक्षण इस प्रकार हैं - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy