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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 411 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि प्राप्त करता है। इस प्रकार विधि-विधानरूप कर्मयोग शुभकारी एवं शुभ फल को देने वाले होते हैं। इसके विपरीत अविधिपूर्वक किए गए कर्म अशुभ फल को प्रदान करते हैं। - यह सर्वशुभाचार का सार है। . गुरु के मुख से या अन्य किसी से मोक्ष के हेतुभूत इन सदाचारों को जानकर जो प्राणी उनका आचरण करता है, वह वांछित फल को प्राप्त करता है। कर्म के क्षय होने से पंचम मोक्षगति की प्राप्ति होती है, शुभ कर्मों से कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। क्या सोने की बेड़ी से जकड़े हुए व्यक्ति को बन्दी नहीं कहते हैं ? दुष्टकर्मों से दुष्ट फल तथा शुभकमों से शुभ फल की प्राप्ति होती है, अतः दोनों के फलों की प्राप्ति समान रूप से होने पर भी मोक्ष के लिए कहाँ अवकाश रहेगा ? इसलिए कर्मों की निर्जरा के लिए तो बारह प्रकार के तप ही बताए गए हैं। यदि ऐसा माने कि दुष्कमों की निर्जरा के लिए शुभकमों का बंध किया जाता है, तो फिर "व्याघ्रदुःतटी" न्याय से जीव को मोक्ष की प्राप्ति हेतु शुभकर्मों की निर्जरा (क्षय) करने के लिए दुष्ट कर्मों को करना होगा तथा दुष्कर्मों का नाश करने के लिए शुभकमों को करना होगा और इस प्रकार मोक्षार्थी के लिए क्या त्याज्य है और क्या करणीय है ? इसका निश्चय नहीं होगा। उष्ण (गर्म) आहार का सेवन करने से पित्त होते हैं, और शीत (ठण्डा) आहार का सेवन करने से वायु होती है तथा ठंडे एवं गर्म आहार का सेवन करने से दोनों की ही वृद्धि होती है, तो फिर व्यक्ति किस प्रकार का आहार करे ? वस्तुतः दोनों प्रकार के आहार की अपेक्षा औषधि का सेवन करने से इन दोनों का नाश होता है। देह में यदि वस्तु स्वयं का प्रभाव डालती है, तो फिर क्या किया जाए ? यह सनातन सत्य है कि किसी वस्तु में कुछ गुणों का सद्भाव होता है, तो कुछ गुणों का अभाव भी होता है। इस संसार में एक वस्तु के विपरीत स्वभाव वाली दूसरी वस्तु भी रही हुई है, जैसे - जल-स्थल, पुण्यात्मा-पापात्मा, सज्जन-दुर्जन, विष-अमृत, दुर्गति-सुगति, दुःख-सुख, साधु-दुष्ट, शत्रु-मित्र, आदि-अन्त, आदि। इस प्रकार संसार में दो-दो के रूप में परस्पर विरोधी युगल रहे हुए हैं। एक का विगमन हो जाने पर दूसरे का आगमन हो जाता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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