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आचारदिनकर (खण्ड-४)
410 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि द्वारा की जाती है, उसी प्रकार से आन्तरिक विकृतियों की विशुद्धि परमार्थतः प्रायश्चित्त से ही होती है।
___आवश्यक-विधि - दिवस, रात्रि, पक्ष, मास एवं वर्ष भर के पापों की विशुद्धि के लिए सम्मिलित रूप से जो षडावश्यक किए जाते हैं, वे आवश्यक क्रियाएँ कर्मों के घात तथा शुभध्यान की प्राप्ति हेतु की जाती हैं - ऐसा परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। - यह आवश्यक-विधि का सार है।
तप-विधि - छः प्रकार के बाह्य तपों के करने से कमों की निर्जरा होती है, किन्तु कोई भी उन तपों को निरन्तर करने में समर्थ नहीं है, अतः बुधजनों द्वारा आचारशास्त्र (कल्प) में उनकी जो अवधि एवं विधि बताई है, उसके अनुसार उन तपों को अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिए। - यह तपविधि-संस्कार का सार है।
पदारोपण-संस्कार - इस संस्कार में सभी व्यक्तियों में जो भी प्रधान पुरुष होते हैं, उनकी पदारोपण विधि बताई गई है, क्योंकि योग्य स्वामी ही सभी का योग-क्षेम आदि करने वाला होता है। स्वामी के स्वामित्व के बिना सभी दुःखी होते हैं। अनेक स्वामियों के होने से उत्तरदायित्व के बोध के अभाव में सबकी रक्षा सम्भव नहीं हो पाती है। मुद्रा (आकृति विशेष) करने का क्या प्रयोजन है, इसके लिए मंत्रशास्त्र देखें। नामकरण की जो विधि है, वह उन-उन वस्तुओं के पहचान के लिए की जाती है। सर्व कार्यों में जो शुभ-मुहूर्त देखा जाता है, वह उस कार्य में सफलता को प्राप्त करने के लिए किया जाता है - ऐसा वीतरागों द्वारा भाषित है। जीव द्वारा विहित कर्म काल के परिपाक से होते हैं। इस प्रकार सभी वस्तुओं की उपलब्धि एवं अनुपलब्धि में जीव के कर्म एवं काल ही कारण होते हैं। - यह पदारोपण-संस्कार का सार है। - इस प्रकार गृहस्थ एवं यति-आचार को पूर्णतः जानकर
आत्म-कल्याण हेतु उन सभी विधि-विधानों का आचरण करना चाहिए। इस प्रकार के विधिपूर्वक कर्मों के करने से प्राणी धर्म का निर्वहन करता है तथा उसमें स्थिर रहता है। इससे उसे सर्वत्र जय की प्राप्ति होती है तथा जन्मान्तर में वह चक्री एवं इन्द्र के पद को
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