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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि दोनों के ही चले जाने पर साधना - मार्ग की उपयोगिता संदिग्ध हो जाएगी। कर्मसूत्रों से वेष्टित जीव सर्वत्र भ्रमण करता है । कुकर्मों का त्याग करने से सत्कर्मों का बन्ध होता है तथा सत्कर्मों का त्याग करने से कुकर्मों का बन्ध होता है - यह बुद्धजनों द्वारा कहा गया है, किन्तु ऐसा मानने पर कर्मों का क्षय कैसे संभव होगा और उसके बिना मोक्ष कैसे होगा ? यह महान् संशय का विषय है, किन्तु यह सत्य है कि कुदेव, कुगुरु एवं कुधर्म का त्याग करने से कर्मों का क्षय होता है । देव, गुरु और धर्म कर्मबन्धन में कहाँ समर्थ हैं ? क्या अरिहंत, बुद्ध, विष्णु, शंभु, सूर्य, अथवा ब्रह्मा लोगों को मोक्षपद प्राप्त करवाते हैं ? क्या गुरु अपनी शक्ति से पापी जीव को मुक्त करा सकता हैं ? मिथ्या उपदेश देने वाला तो स्वयं ही कर्मों को ग्रहण करता है, अर्थात् उनका बंध करता है। क्या कोई जटाधारी संन्यासी, मुमुक्षु अथवा दिगम्बर मुनि शुक्लध्यान के बिना वेशमात्र से मुक्त होता हैं ? अर्थात् नहीं होता है, अतः केवली द्वारा भाषित धर्म का आचरण करने से ही मुक्ति होती है। प्रश्न है उस आचार की विधि किस प्रकार से जानें ? क्या केवल दया करने, सत्य बोलने, धन-सम्पदा एवं भोग-विलास का त्याग करने तथा तपस्या करने से सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा सम्भव है ? वस्तुतः देव, गुरु और धर्म सम्बन्धी कर्त्तव्यों का पालन करने से बद्धकर्मों का नाश होता है, अर्थात् वे कर्त्तव्य निर्जरा का हेतु होते हैं । यदि वे अशुभ कर्मों के अतिरिक्त भी शुभ या शुभाशुभ कर्मों का भी बन्ध करते हों, तो मोक्ष के आकांक्षी जनों को ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूप रत्नत्रय के बिना मोक्ष की प्राप्ति कैसे होगी ? यहाँ भी कुछ लोग रत्नत्रय के एक-एक अंग को मोक्ष का हेतु ग्रहण करते हैं, अर्थात् यह मानते हैं कि मात्र दर्शन से, मात्र ज्ञान से या मात्र चारित्र से मुक्ति होती है, किन्तु ऐसी एकान्त धारणा भी मिथ्यात्व है और मिथ्यात्व दशा में बद्ध्यमान कर्मों से निवृत्ति सम्भव नहीं है । दुराग्रही - मूढ़ जन ज्ञान की एकान्तता को स्वीकार करते हैं । भेद की अपेक्षा करके सर्वतत्त्वों में एकत्व का अनुमोदन करते हैं और यह कहते हैं कि "अद्वय" ही सब कुछ है तथा युक्ति द्वारा भेद की कल्पना मात्र पण्डितों का वाक्-विकास है, इसलिए मात्र तत्त्वज्ञान के
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