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आचारदिनकर (खण्ड-४)
384 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अथवा गृहस्थ गुरु संघपति को उसकी भार्या के साथ ग्रन्थिबन्धन कराकर आसन पर बैठाए। तत्पश्चात् संघपति एवं उसकी भार्या के शरीर पर 'क्षिप ऊँ स्वाहा', इत्यादि मंत्रन्यासपूर्वक शरीर की रक्षा करे। तत्पश्चात् मनोज्ञ वस्त्र एवं आभरण को धारण किए हुए संघपति एवं उसकी भार्या को कुशाग्र पर रही हुई शान्तिकजल की बूंदों से अभिसिक्त करे। तत्पश्चात् सिर पर “ऊँ", भाल पर "श्रीं", नयनों पर "ही", कर्ण पर "श्री", मुख पर "ज", कण्ठ पर "व", स्कन्धों पर "ही", भुजाओं पर “भ्रं", हृदय पर "भ्ल्यूँ", नाभि पर “ऐं", भौंहो पर “बूं"- इन बीजाक्षरों का एवं चंदन-पूजापूर्वक संघपति तथा उसकी भार्या के शरीर पर न्यास करे। तत्पश्चात् पौष्टिकदण्डक का पाठ पढ़कर संघपति एवं उसकी भार्या के मस्तक पर चन्दन का तिलक करे, अक्षत लगाए तथा अष्टविध अर्घ प्रदान करे। गुरु व्रतारम्भ-विधिपूर्वक उन पर वासचूर्ण का क्षेपण करे। तत्पश्चात् गुरु पुनः आसन पर बैठ जाए, उसके बाद अन्य तपस्वी श्रावक-श्राविकाएँ आदि उन्हें तिलक करें। फिर संघपति गृहस्थ गुरु को मुद्रासहित श्वेत रेशमी वस्त्र एवं मणिजड़ित स्वर्ण का कंकण प्रदान करे। तत्पश्चात् सभी साधुओं को वस्त्र वगैरह प्रदान करें एवं अत्यन्त ऋद्धिपूर्वक संघ की पूजा करे। फिर संघपति, माण्डलिक, महागृहपति, भाण्डागारिक, कोट्टपति, जल का स्वामी आदि को क्रमानुसार तिलकपूर्वक वस्त्र-वितरण करे। यह संघपति-पदारोपण की विधि बताई गई है। इसके लिए आवश्यक उपकरण इस प्रकार हैं -
अंजन-शलाका से युक्त जिनबिम्ब एवं मंदिर, छत्र, चामर, कुम्भ, ध्वजा, महनीय चतुर्विध सैन्यबल, देवालय के लिए शकट (बैलगाड़ी) तथा उसके लिए श्वेत वर्ण के तथा बलिष्ठ दो बैल, वस्त्र, देवालय को ढकने के लिए विशिष्ट कौसुम्भवस्त्र (केशरिया) का आवरण, बैलों को सजाने के लिए धुंघरूयुक्त पैरों के आभूषण, घण्टा, स्वर्ण के कलश, स्वर्णमण्डित चार चौकियाँ, कुम्भ, अक्षत आदि विशिष्ट प्रकार के आसन (या चौकियाँ), आरती, धातु के सोलह कुम्भ, चन्दन, कपूर, चन्दन घीसने के लिए ओरसीया (शिला-विशेष), श्रेष्ठ चन्दन, पंखी, शुभ धूपदानी, निर्मार्जनिका, कलश को ढकने के
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