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आचारदिनकर (खण्ड-४) . 367 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि होने पर भी उस कार्य को नहीं करना। व्रतारोपण-संस्कार को छोड़कर गृहस्थ के शेष जो पन्द्रह संस्कार हैं, वे तुम निःशंक होकर करवा सकते हो या करवाना।
आचार्य आदि का अभाव होने पर शान्तिक एवं पौष्टिककर्म आदि सहित गृहस्थ के जो सामान्य संस्कार हैं, वे तुम करवा सकते हों यहाँ मूलग्रन्थ में दो गाथाएँ नहीं दी गई हैं।'
ये सभी कार्य हमेशा तुम्हारे द्वारा करवाए जाने चाहिए - इस प्रकार की अनुज्ञा देकर गुरु उस शिष्य को तिलक करके बधाई दे। यहाँ सम्पूर्ण उत्सव आचार्य-पद की भाँति ही करें।
पदारोपण-संस्कार में गृहस्थ उपाध्याय-पदारोपण की यह विधि बताई गई है। स्थानपति-पदारोपण-विधि -
स्थानपति-पद के योग्य ब्राह्मण के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं -
"शान्त, जितेन्द्रिय, मौनी, नित्य षट्कर्म (छ: आवश्यक कर्म) में निरत, द्वादश व्रतधारी, प्रज्ञावान्, लोकप्रिय, गृहस्थ के कराने योग्य सभी संस्कारों में निपुण, सभी को संतुष्ट करने वाला, निष्कपटी, सदाचारी, शान्त, सभी कार्यों में सामंजस्य स्थापित करने वाला, बलिपूजा आदि कार्यों में कुशल, बोधवासित हो - इस प्रकार की योग्यता से युक्त ब्राह्मण स्थानपति के पद हेतु उत्तम कहा गया है।
. स्थानपति-पदारोपण की सम्पूर्ण विधि उपाध्यायपदस्थापना-विधि की भाँति ही है। इस विधि में गुरु स्थानपति को मंत्र प्रदान नहीं करते। स्थानपति की अनुज्ञा-विधि -
“हे वत्स ! व्रतारोपण को छोड़कर गृहस्थों के शेष पन्द्रह विवाहादि-संस्कार, शान्तिक, पौष्टिककर्म तथा आवश्यक-क्रिया
' मूलग्रन्थ में जो दो गाथाएँ अनुपलब्ध हैं। उन दो गाथाओं में साधु एवं गृहस्थ के जो आठ संस्कार हैं - उनकी अनुज्ञा का कथन होना चाहिए। क्योंकि उससे ऊपर की गाथा में स्पष्ट भी किया गया हैं कि “आचार्य आदि का अभाव होने पर" अतः हमारे अभिप्राय से
यहाँ इन दो गाथाओं में कुछ संस्कारों की अनुज्ञा का कथन होना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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