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आचारदिनकर (खण्ड-४)
320 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि गणधर की आराधना के लिए जो तप किया जाता है, वह गणधर-तप कहलाता है। वर्धमानस्वामी के ग्यारह गणधर हैं, उनकी आराधना के लिए हर एक गणधर के आश्रय से एकान्तरसहित उपवास या आयम्बिल कर इस तरह ग्यारह उपवास, अथवा आयम्बिल करे। इस तप के उद्यापन में गणधरमूर्ति की पूजा करे। साधर्मिकवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। यह तप साधुओं एवं श्रावकों - दोनों को करने योग्य आगाढ़-तप है। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
एकादश गणधर-तप, आगाढ़, उपवास-११, पारणा-११ इन्द्रभूति उप.१ पा. अग्निभूति उप.१ पा. वायुभूति उप.१] पा. श्रीव्यक्त उप.१ पा.
अकपित उप.१ पा. अचलभूति उप.१पा. मैतार्य |उप.१ पा. प्रभास उप.१पा. | सुधर्मा उप.१ पा. मंडित उप.१] पा. | मौर्यपुत्र उप.१] पा. |
४१. अशोकवृक्ष-तप -
अब अशोकवृक्ष-तप की विधि बताते हैं - "आश्विन शुक्ल प्रतिपदमारभ्य तिथीश्च पंच निजशक्त्या।
कुर्यात्तपसा सहितः पंच समा इदमशोक तपः।।१।।" अशोकवृक्ष की तरह यह तप मंगलकारी होने से अशोकवृक्ष-तप कहलाता है। आश्विन शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन शुरू करके सुदी (शुक्ल पक्ष) पंचमी तक, अर्थात् पाँच दिन तक शक्ति के अनुसार तप का प्रत्याख्यान कर यह तप करे। प्रतिदिन अशोकवृक्ष सहित जिनेश्वरदेव की पूजा करे। इस तरह पाँच वर्ष करना चाहिए।
इस तप के उद्यापन में अशोकवृक्ष सहित नया जिनबिंब बनवाकर विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवाए तथा षट्विकृतियों से युक्त नैवेद्य, सुपारी एवं फल आदि से पूजा करे। साधर्मिकवात्सल्य एवं संघपूजा करे।
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