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आचारदिनकर (खण्ड-४)
321 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि इस तप के करने से सर्वसुख की प्राप्ति होती है। यह तप साधुओं एवं श्रावकों के करने योग्य आगाढ़-तप है। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
अशोकवृक्ष-तप , आगाढ़ इन तिथियों में |१ आश्विन शु. १ । २ । ३ | ४ | ५ | सिर -
२ आश्विन शु.] -"- -"- | -"- निरन्तर पाँच दिन तक ।
-"- | - - ३ आश्विन शु. -"--"- | -"- | -"- |-"-1 उपवास, आयम्बिल आदि | ४ आश्विन श. -"--"--"--"- |-"- 1 तप करे।
५ आश्विन शु. -"--"--"--"--"
इस तप में ला सत्तर लियापनात्तपः पूर्याचा
४२. एक सौ सत्तर जिन-तप -
अब एक सौ सत्तर जिन-तप की विधि बताते हैं - “सप्ततिशतं जिनानामुद्दिश्यैकमेकभक्त चं।
___कुर्वाणानामुद्यापनात्तपः पूर्यते सम्यक् ।।१।।
एक सौ सत्तर जिनेश्वरों की आराधना के लिए यह तप है। इस तप में एक सौ सत्तर तीर्थंकरों के आश्रय से निरन्तर एक सौ सत्तर एकासन करे, अथवा बीस एकासन लगातार करके पारणा करे। इस प्रकार नौ बार करने से एक सौ अस्सी एकासन होते हैं। . इस तप के उद्यापन में बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक पूजा करके, एक सौ सत्तर पकवान, पुष्प, फल आदि चढ़ाए। साधर्मिकवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के प्रभाव | ३४. एक सौ सत्तर जिन, अनागाढ से आर्यदेश में जन्म होता है। यह तप साधुओं एवं श्रावकों - दोनों को करने योग्य अनागाढ़-तप है। इस तप के द्वितीय विकल्पयंत्र का न्यास इस प्रकार है -
२०
एक भक्त । २० । पारणा एक भक्त । २० पारणा एक भक्त
पारणा एक भक्त २० पारणा एक भक्त २० पारणा एक भक्त
पारणा एक भक्त । २०
पारणा एक भक्त
२० ।
पारणा एक भक्त २० । पारणा
२०
४३. नमस्कार-तप -
अब नमस्कार-तप की विधि बताते हैं - "नमस्कारतपश्चाष्टषष्टि संख्यैक भक्तकैः ।
विधीयते च तत्पादसंख्यायास्तु प्रमाणतः।।१।।"
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