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आचारदिनकर (खण्ड-४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
माणिक्य-प्रस्तारिका-तप, आगाढ़ वर्ष । तिथि | तिथि | तिथि । तिथि । तिथि | प्रथम वर्ष | ११उ. | १२ ए. | १३ नी. १४ आं. १५ बि. | आश्विन श. | द्वितीय वर्ष | ११ उ. | १२ ए. १३ नी. | १४ आं. | १५ बि. | आश्विन शु. तृतीय वर्ष ११ उ. १२ ए. १३ नी. १४ आं. १५ बि. | आश्विन शु.. चतुर्थ वर्ष । ११ उ. १२ ए. १३ नी. १४ आं. १५ बि. | आश्विन शु. |
३७. पद्मोत्तर तप -
अब पद्मोत्तर-तप की विधि बताते है - "प्रत्येक नवपद्मेष्वष्टाष्ट प्रत्येक संख्यया।
___उपवास मीलिताः स्युर्दासप्ततिनुत्तराः ।।१।।"
पद्म, अर्थात् कमल लक्ष्मीजी का निवास होने से उत्कृष्ट माना गया है। इसी कारण यह तप पद्मोत्तर-तप कहलाता है। इसमें नौ पद्म होते हैं। प्रत्येक पद्म में आठ-आठ पंखुड़ी होने से प्रत्येक पंखुड़ी का एक-एक उपवास एकान्तरसहित करे। इस प्रकार पंखुड़ियों की संख्या के अनुसार बहत्तर उपवास एकान्तरसहित करे।
इस तप के उद्यापन में बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक आठ पंखुड़ी वाले स्वर्ण के नौ कमल बनवाकर प्रभु के समक्ष रखे। साधर्मिकवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से महालक्ष्मी या प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। यह तप यति एवं श्रावक - दोनों के करने योग्य आगाढ़-तप
इस तप का यंत्र इस प्रकार है -
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