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________________ आचारदिनकर (खण्ड- ४) ऋषभ अ. स. अ. सु. प. सु. शी. श्रे. वासु. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. ए. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. 292 दीक्षातप अनागाढ़, दिन- ७२ चं. १७. ज्ञान- तप प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि २ १ २ १ २ १ २ १ १ १ २ १ २ १ २ १ २ १ २ १ २ १ १ १ वि. अ. ध. शां. अ. म. मु. न. ने. पा. वर्ध. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. कुं. tres 31. Jain Education International २ १ २ १ २ १ २ १ २ 9 २ 9 3 १ २ 9 २ 9 २ 9 अब ज्ञान- तप की विधि बताते हैं " येन तीर्थकृता येन तपसा ज्ञानमाप्यते । pile - ܕ तत्तत्तथा विधेयं स्यादेकान्तरिवृत्तितः ।। १ ।।" जिनेश्वरों का केवलज्ञानकालीन तप ऋषभदेव, मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ एवं नेमिनाथ भगवान को अष्टमभक्त (लगातार तीन उपवास ) के बाद, वासुपूज्य भगवान को चतुर्थभक्त के पश्चात् तथा शेष उन्नीस तीर्थंकरों को छट्टभक्त के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हुआ । ज्ञान से उपलक्षित होने के कारण इस तप को ज्ञान - तप कहते For Private & Personal Use Only ३ । १ २ १ हैं । आदिनाथ, मल्लिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ भगवान ने अट्टमतप के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया, इसलिए उनके ज्ञानतप के निमित्त चार अट्ठम करे। वासुपूज्य स्वामी को एक उपवास से केवलज्ञान हुआ, इसलिए उनके ज्ञानतप के निमित्त एक उपवास करे । शेष उन्नीस तीर्थंकरों को छट्टभक्त से केवलज्ञान हुआ, इसलिए उनके ज्ञानतप के निमित्त उन्नीस छट्ट भक्त करे । चौबीस तीर्थंकरों के ज्ञानतप के अंतर में एकभक्त करे । इस तप का उद्यापन दीक्षातप की भाँति ही करे । इस तप के फल से विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है । यह साधु एवं श्रावकों दोनों के करने योग्य आगाढ़ - तप है । - www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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