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आचारदिनकर (खण्ड-४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ।
आं. | ए. आं.ए. आं. | ए. आं. ए.
परमभूषण-तप, कुलदिन - ६४ आं.ए. | आं. | ए. आं. | ए. | आं. | ए. | आं. | ए. आ. | ए. आं. | ए. | आं.ए. | आं.ए. आं.ए. आं.ए. आं.ए. आं.ए. आं.ए. आं.ए. आं. | ए. आं.ए. आ. | ए. | आं. | ए. आं.ए. आं. | ए..| आं. ए. आं.ए. आं.ए. आं. | ए. | आं. ए. | आं. ए. | आं.ए.
१६. जिनदीक्षा-तप-विधि -
अब जिनदीक्षा-तप की विधि बताते है - “दीक्षातपसि चार्हद्भिर्येनैव तपसां व्रतं।
जगृहे तत्तथा कार्यमेकान्तरित युक्तितः।।१।।" जिनेश्वरों का दीक्षाकालीन-तप - सुमतिनाथ प्रभु एकासन, वासुपूज्यस्वामी चतुर्थभक्त, पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ, अट्ठमतप तथा शेष तीर्थकर छट्ठतप करके दीक्षित हुए।
यह अरिहंत परमात्माओं का दीक्षा-तप का अनुसरण करने वाला होने से दीक्षा-तप कहलाता है। सुमतिनाथस्वामी ने एकभक्त करके दीक्षा ली, इसलिए उस निमित्त से एकभक्त करे, वासुपूज्यस्वामी ने उपवास करके दीक्षा ली, इसलिए दीक्षा-कल्याणक के निमित्त उपवास करे, पार्श्वनाथ तथा मल्लिनाथ भगवान ने अट्ठम करके दीक्षा ली, इसलिए उनके दीक्षा-कल्याणक के निमित्त एक-एक अट्ठम (निरन्तर तीन उपवास) करे। शेष बीस तीर्थंकरों ने छ? (निरन्तर दो उपवास) करके दीक्षा ली, इसलिए उनके दीक्षा-कल्याणकों के निमित्त एक-एक छट्ठभक्त (निरन्तर दो उपवास) करे।
प्रत्येक परमात्मा के दीक्षातप के अंतर में एकभक्त करे।
इस तप के उद्यापन में एकभक्त करके बृहत्स्नात्रविधि से परमात्मा की स्नात्र एवं अष्टप्रकारी पूजा करे तथा षट्विकृतियों से युक्त नैवेद्य चढाए। इस तप के करने से निर्मल व्रत की प्राप्ति होती है। यह साधु एवं श्रावकों के करने योग्य अनागाढ़-तप है।
इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
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