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आचारदिनकर (खण्ड-४)
293 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
केवलज्ञानतप, अनागाढ़, दिन - ७५ ऋषभ. अ. | सं. | अ. सु. | प. | सु. | चं. सु. | शी. | श्रे. | वा. उ. ए.उ. ए. उ. ए.उ. ए.उ.ए.उ.ए. उ. ए.उ. ए. उ.ए. उ.|ए. उ. ए.उ.|ए. ३/१२/१/२ १२ १२ १२ १२/१२/१२/१२/१२/१/१/१ वि. | अं. | ध. | शां. | कुं. अ. म. मु. न. | ने. पा. | वर्ध. | उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. उ. ए. | २/१/२/१/२/१२/१२/१/२१|३१|२१|२१|३|१|३१|२|१]
१८. निर्वाण-तप -
अब निर्वाण-तप की विधि बताते हैं - "येन तीर्थंकृता येन तपसा मुक्तिराप्यते।
तत्तत्तथा विधेयं स्यादेकान्तरितवृत्तितः ।।१।। जिनेश्वरों का निर्वाणकालीन-तप -
ऋषभदेव ने चौदहभक्त (निरन्तर छः उपवास) के बाद, वीरजिन ने छट्ठभक्त (निरन्तर दो उपवास) के पश्चात् एवं शेष बाईस जिनों ने तीस उपवास के पश्चात् निर्वाण को प्राप्त किया।
निर्वाण से उपलक्षित होने के करण इस तप को निर्वाणतप कहते है। आदिनाथ भगवान ने छः उपवास कर मुक्ति प्राप्त की, महावीरस्वामी ने छट्ठभक्त तप द्वारा मुक्ति प्राप्त की एवं शेष तीर्थंकरों ने एक माह के उपवास द्वारा मुक्ति प्राप्त की - इन सब तप के उपवास एकान्तर एकासन से करे।।
इस तप के उद्यापन में बृहत्स्नात्रपूर्वक जिन प्रतिमा के समक्ष चौबीस-चौबीस सर्व प्रकार के फल, नैवेद्य आदि चढाए। साधुओं की भक्ति एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से आठ भव में मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह तप साधु एवं श्रावक के करने योग्य अनागाढ़-तप
इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
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